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________________ १५४- सम्यक्त्वपराक्रम ( २ ) बाह्य परीक्षा होने से भावप्रतिक्रमण के नाम पर होने वाली ठगाई रुक जाती है । जैसे बगुला धीरे से एक पैर रखने के बाद दूसरा पैर उठाता है, किन्तु उसके हृदय में भावना कुछ और ही रहती है, उसी प्रकार बहुत से लोग दुनिया को अपना सयमयोग दिखाने के लिए बाहरी रूप कुछ और ही दिखलाते हैं और इस प्रकार अपनी उगाई जारी रखते है । किन्तु शास्त्र व्यवहार की यह परीक्षा बतलाता है कि जिनकी आत्मा सयमयोग से अभिन्न होगी, उनकी इन्द्रियाँ सुप्रणिहित होनी चाहिए अर्थात् उनकी इन्द्रियो मे भीतर और बाहर ऐसी शान्ति होगी कि देखने वाले के दिल मे समाधि उत्पन्न हुए बिना नही रहेगी । साधारणतया ससार मे शुक्ल पक्ष भी है और कृष्ण पक्ष भी है, अर्थात् सयमयोग मे प्रवृत्त होने वाले भी हैं और सयमयोग के नाम पर ठगाई करने वाले भी हैं । शास्त्र दोनो की स्पष्ट परीक्षा बतलाकर कहता है कि जिसकी आत्मा सयमयोग मे वर्तती होगी, उसकी इन्द्रियो का प्रणिधान होना ही चाहिए । इसके अतिरिक्त प्रकृति भी सयमयोग मे वर्तने वाले की साक्षी देती है । उदाहरणार्थ- किसी जगह ढाल ( उतार ) है या नही, यह जानने मे कदाचित् तुम असमर्थ हो सकते हो, मगर पानी तत्काल उतार का पता लगा लेता है और जिधर उतार होता है उधर ही बहने लगता है । इसी प्रकार शास्त्र मे कथित परीक्षा द्वारा सयमयोग में वर्तने वाले की पहचान कदाचित् आप न कर सके मगर प्रकृति तो बतला ही देती है कि यह सयमयोग में प्रवृत्ति करने वाला है या नहीं ? आपने यह तो सुना ही होगा कि प्राचीन काल मे मुनियों की गोद मे सिंह भी
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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