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________________ ग्यारहवाँ बोल-१३६ मिला है । अतएव तुम्हे इस बात का भान होना ही चाहिए कि नेत्रो का सदुपयोग किस प्रकार किया जाय ? इतना होने पर भी तुम्हारे नेत्र कहा-कहा भटक रहे हैं ! नेत्रो की चचलता के लिए सिर्फ नेत्रो को उपालम्भ देकर न रह जाओ, वरन् उस चचलता को हटाने के लिए हृदयपूर्वक प्रतिक्रमण करो और जिस भाव से नेत्रो की प्राप्ति हुई है, उन्हे उसी भाव मे रहने दो । तुम प्रतिक्रमण तो करते होओगे मगर वह केवल व्यवहार साधने के लिए ही न रह जाये, इस वात की सावचेती रखो । अगर आत्मा की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करोगे तो उससे अवश्य ही अपूर्व लाभ होगा। यह हुई चक्षु की बात । इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय आदि इन्द्रिया भी क्षयोपशमभाव से ही प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त तुम्हे मन भी प्राप्त है और बुद्धि भी प्राप्त है । इन सब इन्द्रियो का, मन का और बुद्धि का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए, यह विचार करना आवश्यक है । व्यवहार मे नाक के विपय में आप यह विचार अवश्य रखते होगे कि अमुक काम करने से हमारा नाक कट जायेगा, परन्तु ज्ञानीजनो का कथन है कि व्यवहार के ही समान निश्चय में भी इसी बात का विचार रखो कि नाक कटाने के समान खराव कार्य न हो । मानव-सुलभ दुर्बलता के वशीभूत होकर कदाचित् असत्यकार्य कर बैठो तो उनके लिए पश्चात्ताप करके प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए और इस प्रकार प्रतिक्रमण द्वारा परस्थान मे गये हुए आत्मा को स्वस्थान पर लाना चाहिए। सुगधित और स्वादिष्ट वस्तु तुम्हे अच्छी लगती है। मगर किसी भी वस्तु का उपयोग करने से पहले यह देख
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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