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________________ १३०-सम्यक्त्वपराक्रम (२) है, उसके कुल मे सस्कार भी प्राय वैसे ही बन जाते है और उस वाणी के पालन करने के आधार पर ही वे उच्चगोत्र के अथवा नीचगोत्र के माने जाते है । उच्चगोत्र वालो के कुल के सस्कार से आत्मा उन्नत बनता है, अवनत नही बनता । किसी कुल के सस्कार ऐसे भी होते है कि उनकी बदौलत उन्हे अच्छी बात रुचिकर नही होती और पाप-कृत्यों के प्रति घृणा नही होती । किसी कुल के मस्कार ऐसे होते है कि चाहे जो हो पर उस कुल मे जन्मने वाले पापकार्यों मे प्रवृत्त नही होते । उदाहरणार्थ- तुम्हारे सामने कोई लाख रुपयो की थैली रख दे तो भी तुम बकरे की गदन पर छरी फेरने को तैयार नही होओगे । यह उच्चगोत्र और कुल के सत्सस्कारो का ही प्रभाव है । कभी-कभी उच्चगोत्र वालो मे भी कोई बुरी गात घुस जाती है । जैसे तुम लोगो को बकरा मारने मे जैसी घृणा है, वैसी घणा क्या असत्य भाषण और व्यभिचार के प्रति भी है ? । प्राचीनकाल मे व्यभिचार, हिंसा से भी अधिक बुरा माना जाता था । मगर आजकल व्यभिचार के प्रति उतनी घृणा नही देखी जाती। पुराने जमाने मे व्यभिचार, हिंसा से भी बुरा समझा जाता था, इसका प्रमाण यह है कि महाशतक श्रावक की पत्नी रेवती हिंसा का कर कर्म करती थी, फिर भी महाशतक ने उसे घर से बाहर नहीं निकाल दिया था । महाशतक ने रेवती को घर से बाहर क्यो नही निकाल दिया? इसका कारण मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि महाशतक यह विचार करता था कि रेवती का खानपान खराव है लेकिन मुझ पर इसका अनुराग है और वह व्यभिचार से बची हुई है। अगर मै उसे बाहर कर दू गा तो वह
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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