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१२०-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
क्षमा करे ।
'अहोकाय कायसफासिय' इन शब्दो का हस्व-दीर्घ रीति से उच्चारण करके चरणस्पर्श करना चाहिए और फिर क्षमायाचना करके गुरु को हाथ जोडकर, नमस्कार करके इस प्रकार कहना चाहिए -
बहसुभेणं भे! दिवसो वइकन्तो ? जत्ता मे ! जवणिज्जं च भे!
इस पाठ में देवसी, रायसी, पक्खी, चौमासी या सवत्सरी का जो दिन हो, उसका उच्चारण करना चाहिए । इस पाठ का अर्थ यह है- हे गुरो । दिवस, रात्रि पक्खी, चौमासा या सवत्सरी का काल आनन्दपूर्वक व्यतीत हुआ? इस प्रकार गुरु से कुशल-प्रश्न पूछना चाहिए । फिर 'जत्ता भे' इतना कहकर पहला आवत न, 'जवणि' कहकर दूसरा और 'ज्ज च भे' कहकर तीसरा आवर्तन करना चाहिए ।
इन तीन आवर्त्तनो के समय उच्चारण किये हुए अक्षरो मे से 'जत्ता भे' का अर्थ यह है कि - 'गुरु महाराजा मूल गुण और उत्तर गुण रूपी आपकी मयम यात्रा तो आनन्दपूर्वक चलती है न ? 'जवणिज्ज' का अर्थ यह है कि आप इन्द्रियो का और मन का दमन तो बराबर करते है न ? 'ज्ज च भे' का आशय यह कि 'हे गुरु | आपकी सयमयात्रा, आपके इन्द्रियदमन और आपकी यतना को मैं स्वीकार करता हूं।'
गुरु को आवर्तन करने का उद्देश्य क्या है ? किस हेतु से आवर्तन करना चाहिए ? इन प्रश्नो का निर्णय करने के लिए यह विचार करना चाहिए कि वर और कन्या अग्नि