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पांचवां बोल
आलोचना
संवेग, निर्वेद, धर्मश्रद्धा और गुरुसहधर्मीसेवा का विवेचन किया जा चुका है । अब पाँचवे बोल पर विचार किया जाता है । भगवान् से प्रश्न किया गया है.
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मूल पाठ
प्रश्न -आलोयणाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ?
उत्तर - श्रालोयणाए णं मायानियाणमिच्छाद रिसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणत श्रणतससारबंधणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च जणयइ, उज्जुभावपडिवन्न य णं जीवे श्रमाई, इत्थीवेयनपु सगवेय च व बंधई, पुव्वबद्ध च णं निज्जरेइ ॥ ५ ॥ शब्दार्थ
प्रश्न- हे भगवन् 1 आलोचना करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर
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( गुरु के समक्ष ) आलोचना करने से मोक्षमार्ग मे विघ्न डालने वाले और अनन्त ससार की वृद्धि करने वाले माया मिथ्यात्व तथा निदान रूप तीन शल्यों को जीव हृदय से बाहर निकाल फैकता है । इस कारण जीव का हृदय निष्कपट-सरल बन जाता है । आत्मा कपटरहित बन कर स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का बन्ध नही करता । अगर इस वेद का वध हो चुका हो तो निर्जरा
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