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श्रध्ययन का आरम्भ - ७१
है और शाक - तरकारी आठ आने सेर । तो क्या कोई भी दयाधर्मी महँगाई के कारण शाक-तरकारी खाना छोडकर उसके बदले सस्ता मास खाना पसन्द करेगा ? मास का नाम कान मे पडते ही दयाधर्म याद आ जाता है, इसका कारण पैत्रिक सस्कार हैं । परन्तु वस्त्रो के विषय मे नही सोचते कि हम क्या कर रहे है ? सुना है चिकागो (अमेरिका ) मे जो कत्लखाने हैं, उनमें का रक्त बाहर निकालने के लिये इतने मोटे नल लगाये गये हैं जैसे किसी शहर की ast बडी गटरे हो । इस प्रकार की घोर हिंसा वाली चर्बी लगे वस्त्र पहनना क्या दयाधर्मी को शोभा देता है ? जो सच्चा दयाधर्मी होगा वह तो यही कहेगा कि ऐसे वस्त्र मुझसे पहने ही नही जा सकते ।
दयाधर्म की रक्षा के लिये ही तुमने मांसभक्षण का त्याग कर रखा है । मास के प्रति तुम्हारे दिल में इतनी तव्र घृणा है कि प्राण भले ही चले जाएँ मगर तुम मास का स्पर्श तक नही कर सकते । मास न खाने के विषय मे जिस युक्ति का उपयोग किया जाता है, उसी युक्ति का अन्य बातो में अर्थात् कोन वस्तु उपादेय है और कौन हेय है, ऐसा विवेक करने मे उपयोग करने से ही दयाधर्म टिक सकता है । कदाचित् कोई कहे कि दयाधर्म की रक्षा करने में कष्ट सहना पड़ता है तो उसे उत्तर देना चाहिये कि दयाधर्म की रक्षा के लिये कष्ट सहन करना ही उचित है । गजसुकुमार मुनि सयम का पालन करने के लिये ही निकले थे और वह सयम का पालन कर रहे थे, इसी कारण उनके सिर पर कष्ट पडे थे । पर कष्ट पड़ने के कारण उन्होने क्या सयम पालना छोड दिया था ? तो क्या तुम दयाधर्म
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