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६४-सम्यक्त्वपराक्रम (१) जाये तो उसे बुरा भी लगता है । इससे सिद्ध है कि सभी लोग 'सम्यग्दृष्टि रहना चाहते है और वास्तव में यह चाहना उचित भी है । मगर पहले यह समझ लेना चाहिए कि सम्यक्त्व का अर्थ क्या है ? 'सम्यक्' का एक अर्थ प्रशसा रूप है और दूसरा अर्थ अविपरीतता होता है । यद्यपि सच्चा सम्यक्त्व अविपरीतता में ही है पर शास्त्रकार यशस्वी काय भी समकित में ही गिनते है ।।
विपरीत का अर्थ उलटा और अविपरीत का अर्थ सीधाजैसे का तैसा, होता है । जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप मे देखना अविपरीतता है और उल्टे रूप देखना विपरीतता है। उदाहरणार्थ--किसी ने सीप देखी । वास्तव मे वह सीप है, फिर भी अगर कोई उसे चाँदी समझता है तो उसका ज्ञान विपरीत है । काठियावाड में विचरते समय मैने मृगमरीचिका देखी । वह ऐसी दिखाई देती थी मानो जल से भरा हुआ समुद्र हो । उसमे' वृक्ष वगैरह की परछाई भी दिखाई देती है। ऐसा होने पर भी मृगमरीचिका को जल समझ लेना विपरीतता है।
जैसे यह विपरीतता बाह्य-पदार्थों के विषय मे है, उसी प्रकार आध्यात्मिक विषय मे भी विपरीतता होती है। शास्त्रोक्त वचन समझ कर जो सम्यग्दृष्टि होगा वह विचार करेगा कि अगर मैंने वस्तु का जैसे का तैसा स्वरूप न समझा तो फिर मैं सम्यग्दृष्टि ही कैसा ?
सीप जब कुछ दूरी पर होती है तो उसकी चमचमाहट देखकर चाँदी समझ ली जाती है। अगर उसके पास जाकर देखो तो कोई सीप को चाँदी मान सकता है ? नही। इसी प्रकार ससार के पदार्थ जब तक मोह की दृष्टि से देखे -