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५४ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
नही कहला सकता । भगवान् तो वही हो सकता है जो
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. समग्र ऐश्वर्य का स्वामी हो । भगवान् मानो अविकल ऐश्वर्य के ही पिंड हैं ।
सब प्रकार का सासारिक ऐश्वर्य प्राप्त होने पर भी 'अगर वह ऐश्वर्य विषयभोग मे लगा हो तो वह भगवान् होना तो दूर रहा, भगवान् होने का पूर्ण प्रयत्न भी नही कर सकता । भगवान् वही हो सकता है, जिसमे समग्र ऐश्वर्य के साथ ही साथ सम्पूर्ण धर्म भी हो । ऐश्वर्य और धर्म की समग्रता के साथ सम्पूर्ण यश भी होना चाहिए ।
कहा जा सकता है कि भगवान् को यश से क्या मतलव है ? इसका उत्तर यह है कि सभी लोग यश की कामना करते है । लोग अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते है और निन्दा सुनकर नाराज होते है । इससे बात स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा स्वभावत यश ही चाहती है । काम भले ही कोई अपयश का करे मगर कामना उसमे भी यश की ही होती है ।
भगवान् पूर्णरूप से निष्काम होते हैं । उनमे लेशमात्र भी यश कामना सम्भव नही है । फिर भी उनके लोकोत्तर महान् कार्यों से यश आप ही आप फैल जाता है । उनकी कोई भी प्रवृत्ति अपयशकारक नही होती । भगवान् अठारह दोपो से रहित होने के कारण पूर्ण रूप से यशस्वी है ।
भगवान् मे चौथी बात होनी चाहिए । समग्र श्री । भगवान् मे आठ प्रातिहार्य रूप लक्ष्मी होती है । अलौकिक 'लक्ष्मी के आगे ससार की लक्ष्मी तुच्छ, अति तुच्छ है । ग्राठ . प्रातिहार्य कौन-कौन से है ? इस सम्बन्ध में कहा है
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