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अध्ययन का प्रारम्भ-५१
श्री सुधर्मास्वामी ने इस सूत्र मे, जो कुछ कहने योग्य था, सभी कुछ कह दिया है। परन्तु इस कथन पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किये बिना यह सब की समझ मे नही आ सकता । अतएव इस विषय मे यहाँ कुछ विचार किया जाता
__ इस सूत्र मे सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा है'हे आयुष्मन् ! मैंने भगवान महावीर से इस प्रकार सुना है।'
सुधर्मास्वामी जिन तो नही किन्तु जिन सरीखे थे । वह चार ज्ञान और चौदह पूर्व को धारण करने वाले तथा असदिग्ध वचन बोलने वाले थे । स्वय इतने महान् ज्ञानवान् होते हुए भी वह कहते है कि मैंने भगवान् से ऐसा सुना है। सुधर्मास्वामी महान् विनयवान् और ज्ञानवान् थे। उनके विषय मे जीभ कहने के लिए समर्थ नहीं है । फिर भी जब प्रसग आ ही गया है तो कुछ शब्द कहता हूँ।
__ प्रथम तो सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी को 'आयुष्मन्' कह कर सम्बोधन किया । जम्बूस्वामी मे धैर्य, गाभीर्य, त्याग, सेवाभाव आदि अनेक गुण थे, फिर भी सुधर्मास्वामी ने उन्हे गुणसपन्न विशेषण से सम्बोधन न करके 'पायुप्मन्' शब्द से सम्बोधित किया, सो इसका क्या कारण है ? यह बात यहाँ विचारणीय है।
ससार मे आयुष्य को विशेष महत्व नहीं दिया जाता। आयुप्य मे क्या पडा है ? उसे तो कीडे-मकोडे भी भोगते है ! इस प्रकार कहकर लोग उसकी उपेक्षा करते हैं । किन्तु । वास्तव में आयु ऐसी उपेक्षा, करने योग्य वस्तु नही है। बल्कि आयु के बरावर, महत्वपूर्ण कोई दूसरी वस्तु नही है।