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अध्ययन का श्रारम्भ - ४३
वचन हमें सुनने को मिलते है, यह हम लोगों का कितना सद्भाग्य है । न जाने कितने जन्म-मरण करने के पश्चात् हम लोगो को यह मनुष्यजन्म मिला है और इसमे भी आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और जैनधर्म प्राप्त करने का सुयोग मिला है । आज हम लोगो को जिनवाणी सुनने का यह सुअवसर प्राप्त हुआ है। यह क्या कम सौभाग्य की बात है ?
सुधर्मास्वामी ने कहा है- 'मैने भगवान् से ऐसा सुना है ।' इस कथन का एक कारण यह भी हो सकता है कि ' उस सूत्रवचन पर आदरभाव उत्पन्न हो और सूत्रश्रवण करना सौभाग्य की बात समझी जाये । सुधर्मास्वामी के यह वचन सुनकर शिष्य को अवश्य ही कत्तव्य का भान हुआ होगा । उसने सोचा होगा -- चार ज्ञान और चौदह पूर्व के स्वामी होते हुए भी यह महानुभाव अपनी बात नही सुनाते वरन् गुरुपरम्परा ही सुनाते है, तो मेरा कर्त्तव्य क्या होना चाहिए ? इन गुरु महाराज का मुझ पर अनन्त उपकार है, अतएव मुझे भी ऐसा ही कहना चाहिए कि- मैंने भी अपने गुरु से इस प्रकार सुना है ।
इस प्रकार गुरु द्वारा सुनी हुई बात कहने से और गुरुपरम्परा सुरक्षित रखने से ही यह सूत्र आज हम लोगो को इस रूप मे उपलब्ध हो सका है । भगवान् से सुधर्मा - स्वामी ने यह सूत्र सुना, सुधर्मास्वामी से जम्बूस्वामी ने सुना और जम्बूस्वामी से प्रभवस्वामी ने यही सूत्र सुना । इस प्रकार क्रमश. गुरुपरम्परा से चलता आने के कारण ही भगवान् की यह वाणी आज भी विद्यमान है ।
यह भगवान् की वाणी है, ऐसा कहने का एक कारण और भी है । पहले के ज्ञानीजन यह जानते थे कि आगे
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