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२४८-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
त्याग करने मे या धर्म की सौगन्ध खाने में सकोच नहीं करते । धर्म सौगन्ध खाने की चीज नही है । धर्म का सम्बन्ध प्राणो के साथ है। प्राण जैसा प्यारा लगता है उसी प्रकार धर्म प्यारा लगना चाहिए । धर्म जब प्राणो के समान प्रिय लगे तब समझना चाहिए कि हम मे धर्मश्रद्धा मौजूद है और जब धर्मश्रद्धा प्रकट होगी तो गुरु और सहधर्मी की सेवा-शुश्रूषा द्वारा विनयगुण और अनासातना गुण प्रकट हुए बिना नही रहेगा । अनासातना गुण प्रकट होकर वह आपको दुर्गति मे जाने से बचाएगा । यही नहीं वह सद्गति या सिद्धिगति को भी प्राप्त कराएगा । अनासातना गुण विनय की विद्यमानता मे ही प्रकट होता है । अतएव जीवन में सव से पहले विनयगुण प्रकट करने की आवश्यकता है । विनय धारण करने मे अपना ओर पर का एकान्त कल्याण
गुरु और सहधर्मी की सेवा भक्ति करने से आत्मा विनयगुण प्राप्त करता है और विनयगुण मे आयातना दार्ष का नाश होता है । आसातना दोप नाट होने पर और अनासातना का गुण प्रकट होने पर आत्मा नरक और तिर्यच की दुर्गति से बचकर देव और मनुष्य सम्बन्धी सुगति प ता है । मनुष्यो और देवो मे भी दुर्गति और सुगति दोनो प्रकार की गतियाँ होती हैं । पुण्य क्षीण होने से नोचे गिरना दुर्गति मे है और अधिकतर आत्मकल्याण साधने का प्रयत्न करना सुगति मे है । अर्थात् देवगति या मनुष्यगति पाकर जो आत्मकल्याण साधने का प्रयत्न करता है वह मुगति मे है और आत्मा का अकल्याण करने वाला दुर्गति मे है यद्यपि देवभव या मनुष्यभव पाकर भी दुखी रहना दुर्गति है और