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। चौथा बोल-२३६7
आत्मा इन रत्नों को तभी पकड़ सकता है जब आत्मा मे स्वाभाविक नम्रता आ जाती है। आंसातेना दोष के कारण आत्मा मे एक प्रकार को अकर्ड रहती है । यह अकड जब तक वनी रहती है तब तक आत्मा र नत्रय को नही पकड सकता । अतएव आत्मा को सब से पहले विनयशील और अन सांतनाशील बनाने की आवश्यकता है ।
'अनासातना गुण प्राप्त होने से आत्मा को क्या लाभ होता है ? इस विपय मे कहा है कि अनासातना .गुण प्राप्त, होने से आत्मा नरक, तिर्यंच और मनुष्य, देव की दुर्गतियो, में से बच जाता है और सद्गति प्राप्त करता है । शस्त्रकारो, ने नरक और तिर्यंचगति दुर्गति बतलाई ही है, मगर मनुष्यगति और देवगति में भी दुर्गति कही है। इस दुर्गति से बचने का उपाय अनासातना गुण ही है । आत्मा प्र येक गति मे जा चुका है लेकिन उसमे अभी तक नम्रता नही आई और इसी कारण वह संसार मे भ्रमण कर रहा है । आज भी बहतेरे लोग लक्कड की तरह अकड कर रहते हैं । ऐसी अकड वाले लोगो की आत्मा में सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी त्रिरत्न किस तरह जडे जा सकते है ? इमीलिए जैसे माता अपने बालक को हित शिक्षा देती है उसी प्रकार शास्त्रकार हम लोगो को शिक्षा देते हैं किहै जीवो | अकड कर मत रहो अभिमानी मत बनो, नम्रता धारण करो। तुम मे जसे अकड कर रहने की शक्ति है, उसी प्रकार नम्र बनने की भी शक्ति है । फिर अकड मे रहकर दुर्गति मे किसलिये भ्रमण करते हो ? और विनम्र बनकर दुर्गति के भ्रमण से क्यो नहीं बचते ?