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चौथा बोल - २३५
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गुरु और सहधर्मी की सेवा करने से सेवक को विनयगुण की प्राप्ति होती है । जिसमे सेवा करने की भावना होती है उसमे विनयगुण होता ही है । इस कथन के अनुमार गुरु और सहधर्मी की सेवा करने वाले मे भी विनयगुण आता है । यो तो विनय और सेवा एक ही बात है, परन्तु धर्म, श्रद्धा से उत्पन्न हुई सेवाभावना को शास्त्रकारो ने कदाचित् शुश्रुपा' नाम दिया है और सेवाभावना के क्रियात्मकरूप को 'विनय' कहा है । हृदय मे जब सेवाभाव होता है तभी विनय आता है । केवल ऊपर से नम्रता धारण करना विनय नही कहलाता, पर जा नम्रता सेवाभाव के साथ हो, उसी को विनय कहते हैं । विनय, सेवाभाव के साथ किस प्रकार होता है, यह बात एक उदाहरण द्वारा समझाता हू
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दो मित्र है । उनमे एक भीख मागकर पैसा लाता है और दूसरा मेहनत द्वारा कमाई करके पैसा लाता है । तुम इन दो मित्रो मे से किसे अच्छा समझोगे ? निस्सन्देह तुम उसी को अच्छा मानोगे जो कमाई करके पैमा लाता है । भीख माँगने वाले को तुम अच्छा नहीं मानोगे । इसी प्रकार जो विनय गुरु और सहचर्मी की सेवा रूपी मेहनत करके प्राप्त किया जाता है, उसी विनय का महत्व है और ऐसा सेवायुक्त विनय ही लाभकारक सिद्ध होता है ।
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विनय का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि आठ कर्मों के कारण ससारचक्र मे भ्रमण करने वाले आत्मा को मुक्त करने के लिए जो क्रिया की जाती है, वह 'विनय' कहलाती है । यद्यपि विनय भी लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार का है, किन्तु यहाँ लोकोत्तर विनय के साथ
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