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चौथा बोल-२२१
भले ही हो, अगर प्रकाश देता है तो काम का है । इसी प्रकार गुरु शरीर या रूप से कैसा ही क्यो न हो, अगर उसमे अज्ञान दूर करने की शक्ति है तो वह गुरु बन सकता है, अन्यथा नही । आजकल गुरु बनाते समय यह बात नही देखी जाती । आज सिर्फ ऊपर का रग-ढग देखा जाता है । मगर वास्तव मे अज्ञान का अन्धकार दूर करने वाला ही गुरु होना चाहिए।
यहा यह कहा जा सकता है कि गुरु मे प्रकाश देने की योग्यता हो सो तो ठीक है, मगर वह यदि अपने ज्ञान से अनुसार स्वय बर्ताव न करता हो तो क्या करना चाहिए? हमे गुरु से ज्ञान का प्रकाश लेना है, फिर गुरु चाहे कैसा ही बर्ताव करे । उसके बर्ताव से हमे क्या प्रयोजन है ? क्या यह विचारसगत नहीं है ?
इस प्रश्न के उत्तर मे जैनशास्त्र कहते है जो पुरुष अपने ज्ञान के अनुसार व्यवहार नहीं करता, उसका ज्ञान भी अज्ञान है । ऐसा अज्ञानी गुरु तुम्हारे भीतर ज्ञान के बदले अज्ञान ही भरेगा ।
अहमदनगर मे एक नाटक-कम्पनी आई थी। वहा के लोग कम्पनी की मुक्तकण्ठ मे प्रगसा करते थे । कहते थे-आज तक ऐसी कम्पनी कभी नही आई । वह कम्पनी नाटक खेलकर लोगो को ऐसा रिझाती कि लोग प्रसन्न हो जाते थे । एक दिन मै जगल के लिए जा रहा था । सयोगवश नट भी उधर ही आये हुए थे । वह लोग आपस मे जो बातचीत कर रहे थे, वह सुनकर और उनकी ओछी हँसी-दिल्लगी मुनकर मैं चकित रह गया । मैंने सोचा-यह