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तीसरा बोल-२१५
समान है । बहुत-से लोग गुणीजनो के छिद्र ढढते रहते हैं, इतना ही नही, कितनेक छिद्रान्वेषी तो ऐसे होते है कि गुण । को भी दोष का रूप देने मे नही हिचकते । यहाँ साम्प्रदायिक भेदभाव के कारण यह बात बहत अधिक देखी जाती है। लेकिन मुणीपुरुपो के गुण देखने के बदले दोष देखना अपनी आत्मा को पतित करने के समान है।
चौथी मध्यस्थभावना है । किसी विपरीत वृत्ति वाले अर्थात शत्र या पापी को देखकर माध्यस्थभाव धारण करना चाहिए । सच्चा ज्ञानी वही है जो किसी पापी या नीच मनुष्य को भी घृणा की दृष्टि से नही देखता । पापी को देखकर वह विचार करता है कि सूर्य की महिमा अन्धकार के कारण ही है-अन्धकार न होता तो सूर्य का क्या मूल्य ठहरता ? इसी प्रकार पाप के अस्तित्व से ही धर्म या पुण्य का महत्व है । पाप ही धर्म या पुण्य का महत्व बढाता है । पाप न होता तो धर्म का या पुण्य का भाव ही कौन पूछता? इस तरह विचार कर ज्ञानीजन पापा-मा या नीच मनुष्यो के प्रति माध्यस्थ भावना रखते है । ऐसा करने वाला पुरुष अपनी ही चित्तशुद्धि करता है और इस प्रकार दु खे से मुक्त बन जाता है । इन चार भावनाओ को धारण करने से तृष्णा का निरोध और चित्त की शुद्धि होती है। भावनाशुद्धि द्वारा तृष्णा का निरोध करना दुःख से मुक्त होने का और अव्याबाय सुख प्राप्त करने का सच्चा और सरल उपाय है।
कहने का आशय यह है कि जो पुरुष अनगारिता स्वीकार कर भावनाशुद्धि द्वारा तृष्णा का निरोध करता है