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१८४ - सम्यक्त्वपराक्रम ( १ )
सामग्री प्राप्त होती है । मगर शास्त्र बतलाता है कि धर्म से विषयसुख के प्रति अरुचि उत्पन्न होती है । यह तो हमे
नई बात मालूम होती है ।' ऐसा कहने वाले को यही उत्तर
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दिया जा सकता है कि किसान गेहू बोकर सोना-चाँदी पाने की इच्छा नही करता; फिर भी गेहू के विक्रय से उसे क्या सोना-चाँदी नही मिल सकता ? जुलाहा कपडे की बुनाई करके ताँबा - पीतल नही पाना चाहता, फिर भी कपडा बेचकर वह तोबा - पीतल प्राप्त कर सकता है । मिल मालिको के आकाश - चुम्बी भवन वस्त्रो के विक्रय से ही बने हैं या और किसी वस्तु से ?
प्रत्येक कार्य का फल दो प्रकार का होता है- एक साक्षात् फल और दूसरा परम्परा फल । शास्त्र में दो प्रकार के फलों की जो कल्पना की गई है, वह निराधार नही है । धर्म के विषय में भी इन दोनो प्रकार के फलो की कल्पना भुलाई नही जा सकती । धर्म से जो फल मिलने वाला है, वह तो मिलेगा ही, लेकिन तुम धर्म द्वारा ऐसे फल की आकाक्षा न करो कि धर्म से हमे साता - सुख की प्राप्ति हो । सांसारिक सुखो के प्रति अरुचि ही धर्म के फल स्वरूप चाही । इस प्रकार का विचार रखते हुए कदाचित् परम्परा फलस्वरूप इन्द्रपद भी मिल सकता है, किन्तु उसकी प्राकांक्षा मत करो । ग्राकाक्षा धर्म का मैल है उससे धर्मभावना कलुषित हो जाती है और धर्म का प्रधान फल मिलने मे रुकावट होती है ।
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धर्म के प्रति लोगो को अश्रद्धा क्यो उत्पन्न होती है । इसका सामान्यतः कारण यह है कि लोग जिस साता - सुख