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तीसरा बोल-२७३
है । शास्त्रकारो का कथन यह है कि धर्मश्रद्धा का फल सातावेदनीय के उदय से प्राप्त होने वाले सुखों से विरक्त होना है।
। अब आपको यह सोचना है कि आपको किस भावना से धर्म पर श्रद्धा रखना है ? अगर आपको अपना ही सुखसांसारिक सुख चाहिए तो यह तो दुनिया मे चला ही आ रहा है, मगर इस चाह मे धर्मश्रद्धा नही है। अगर आप धर्मश्रद्धा उत्पन्न करना चाहते हैं और धर्म का वास्तविक स्वरूप जानना चाहते हैं तो आपको सदैव यह उच्च भावना रखनी होगी कि- मैं दूसरो को सुख देने मे ही प्रयत्नशील रहूं । इस प्रकार की उच्च भावना टिकाये रखिये और इस भावना को मूर्त स्वरूप देने के लिए सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुखो के प्रति उदासीन रहिए । अगर आपको यह भावना प्रिय लगती है तो उसे' जोवन मे व्यवहृत करने के लिए प्रभु के प्रति यह प्रार्थना करो:
दयामय ! ऐसी मति हो जाय । भूले भटके उलटी मति के जो है जन-समुदाय, उसे सुझाऊँ सच्चा सत्पथ निज सर्वस्व लगाय ।।दया ।। , अर्थात्-हे प्रभो । मेरी बुद्धि ऐसी निर्मल हो जाये कि भान भूले हुए, भटके हुए या उलटो बुद्धि वाले मनुष्यो को देखकर मेरे हृदय मे घृणा या तिरस्कार उत्पन्न न हो, वरन् ऐसा मैत्रीभाव पैदा हो कि अपना सर्वस्व लगाकर भी उसे सन्मार्ग पर लाऊँ और उसका कल्याण करूँ । दूसरे को सुधारने के लिए अपना सर्वस्व होम देने वाले सत्पुरुषो के ज्वलन्त उदाहरण शास्त्र के पन्नो मे लिखे हुए है।