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तोसरा बोल-१६७
मानकालीन अत्याचार और जुल्म धर्मभ्रम या धर्मान्धता के कारण ही हुए और हो रहे है । धर्म तो सदा-सर्वदा सर्वतोभद्र ही है । जहाँ धर्म हैं वहाँ अन्याय, अत्याचार पास ही नही फटक सकतें । साथ ही जिस धर्म के नाम पर अन्याय एव अत्याचार होता है वह धर्म ही नहीं है। वह या तो धर्मभ्रम है या धर्मान्धता है । शास्त्र स्पष्ट शब्दों मे कहता है .
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा सजमो तवो,
अर्थात् - अहिंसा, सयम और तप रूप धर्म-सदा मगलमय है- कल्याणकारी है। जो लोग जोवन में धर्म की अनावश्यकता महसूस करते हैं, उन्होने या तो धर्म का स्वरूप नही समझा है या धर्मभ्रम को ही धर्म समझ लिया है।
धर्म और धर्मभ्रम में आकाश-पाताल जितना अन्तर है । गधे को सिंह को चमडी पहना दो जाये तो गधा कुछ मिह नही बन जायेगा । भले ही सिंह-वेषधारी गधा थोड़े समय के लिये अपने आपको सिंह के रूप में प्रकट करके खुश हो ले पर अन्त मे तो गधा, गधा सिद्ध हुए बिना रहने का नही । इसी प्रकार वर्मभ्रम और धर्मान्धता को भले ही धर्म का चोगा पहना दिया जाये, लेकिन अत मे धर्मभ्रम का क्षय और धर्म को जय हुए बिना नही रह सकती।
धर्म को धर्मभ्रम और धर्मभ्रम को धर्म मान लेने के कारण बडी गडबडो मची है । सुवर्णकार मिट्टी मे मिले सुवर्ण को ताप, कष और छेद के द्वारा मिट्टी से अलग निकालता है, इसी प्रकार विवेकी-जनो को चाहिए कि वे धर्मभ्रम की मिट्टी में मिले हुये धर्म-सुवर्ण को ताप, कष और