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तीसरा बोल-१६३
केवलज्ञान की दिव्यज्योति का लाभ होने पर जगत् के हित के लिए उन्होने धर्म का मर्म जगत् के जीवो के समक्ष उपस्थित किया था, जिससे उनकी वाणी में किसी को किसी प्रकार के सन्देह की गुजाइश न रहे । केवलज्ञान प्राप्त करने के लिये उन्होने साढे बारह वर्ष पर्यन्त घोर तप किया था और अनेक उपसर्ग सहे थे। केवलज्ञान-प्रकट होने के पश्चात् हम लोगो के कल्याण के लिए भगवान् ने जो अमृतवाणी उच्चारी है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भगवान् ने हमारे कल्याण के लिए केवलज्ञान प्राप्त करके यह वाणी उपदेशी है । भगवान् अगर वाणी द्वाग हमे उपदेश न देते तो भी अपना कल्याण कर सकते थे । उपदेश न देने के कारण उनके आत्मकल्याण मे कोई बाधा उपस्थित होने वाली नही थी। अन्य मार्ग से भी वह अपना कल्याणसाधन कर सकते थे।
केवलज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर लगभग ३० वर्ष ' तक वह धर्म का सतत उपदेश देते रहे । साढे बारह वर्ष तक मौनपूर्वक जिस धर्मतत्त्व का उन्होने मनन किया था, उसो धर्म का सार तीस वर्ष तक परिभ्रमण करके जनता को सुनाया। वह जनता का कल्याण करना चाहते थे । इस कथन का अर्थ यह न समझा जाये कि भगवान् को किमी के प्रति मोह या राग था । ससार के जीवो के प्रति उन्हे किसी भी प्रकार का मोह या राग नही था। भगवान् मोहहीन और वीतराग थे । मोह और राग को पूर्णतया जीते बिना केवलज्ञान प्राप्त ही नही होता ।
भगवान् ने किस प्रयोजन से धर्म देशना दी, यह विचार