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पहला बोल-१२३
आजकल तो इससे एकदम विपरीत दिखाई पड़ता है। धर्म को क्यो छिपाना चाहिए और पाप को क्यो प्रकट करना चाहिये, यह बात एक सामान्य उदाहरण द्वारा समझाता हूँ।
मान लीजिये आप किसी जगल मे जा रहे है। आपको रास्ते मे चोर मिले । अब आप चोरो से बचने के लिए कीमती चीजे छिपाएँगे या कम कीमती ? इसके उत्तर मे आप यही कहेगे कि कोमती चीजे ही छिपानी चाहिए। तो अब विचार कीजिए कि धर्म और पाप मे से कामती क्या है ? अगर आप धर्म को कीमती मानते हैं तो धर्म को छिपाहुए और पाप को प्रकट कीजिये । जब आप पाप को प्रकट करोगे तो आपमे अद्भुत नम्रता आ जाएगी। धर्म या शुभ कार्य का निर्णय तो जल्दी नही कर सकते, पर पाप का निर्णय तो कर सकते हो ! अपने पाप को देव, गुरु और धर्म की साक्षी से प्रकट करोगे तो आप मे दीनता आएगी और जब सचमुच अन्त करण से दीन बनोगे तभी परमात्मा को प्रार्थना करने के योग्य बनोगे । अगर दीन बनकर परमात्मा की प्रार्थना करने की योग्यता सम्पादन करना है तो परमात्मा के प्रति ऐसी प्रार्थना करो
(श्री मुनिसुव्रत साहबा, दीनदयाल देवातणा देव के, 'तरण-तारण प्रभु तो भणी, उज्ज्वल चित्त सुमरू नितमेव के।
परमात्मा दीनदयाल कहलाता है तो दीनदयाल की दया प्राप्त करने के लिए दीन बनना ही पडेगा। जव दीनदयाल परमात्मा के समक्ष भक्त दीन वन जाता है तो हृदय मे अहकार या अभिमान रह सकता है ? सच्चे हृदय से परमात्मा के आगे दीन बनने पर अनतानुबन्धी क्रोध, मान, माया तथा लोभ टिक नहीं सकते । अतएव क्रोध आदि