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पहला बोल-११५
कहकर अभिमान, क्रोध आदि का निषेध करना चाहिए । अगर इसका निषेध किये बिना ही धर्मस्थान मे पाते हो तो कहना चाहिए कि आप अभी धर्मतत्त्व से दूर हैं ।
भीम ने युधिष्ठिर से कहा - 'गधर्व द्वारा दुर्योधन के कैद होने से तो हमे प्रसन्नता हुई थी। आप न होते तो हम इसी पाप मे पडे रहते ।' भीम का यह कथन सुनकर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया 'यह तो ठीक है, मगर अर्जुन जैसा भाई न होता तो मेरी आज्ञा कौन मानता ?
तुम भी छद्मस्थ हो। तुम्हारे अन्त करण में इस प्रकार का पाप आना सभव है। फिर भी आज्ञा शिरोधार्य करने का ध्यान तो तुम्हे भी रखना चाहिए । भगवान् की आज्ञा है कि सबको अपना मित्र समझो । अपने अपराध के लिए क्षमा मागो और दूसरो के अपराध क्षमा कर दो। इस आज्ञा का पालन करने मे ऐसी पॉलिसी का उपयोग नही करना चाहिए कि जिनके साय लडाई-झगडा किया हो उनसे तो क्षमा माँगो नही और दूसरो के केवल व्यवहार के लिए क्षमा याचना करो । सच्ची क्षमा मांगने का और क्षमा देने का यह सच्चा मार्ग नहीं है । शत्रु हो या मित्र, सब पर क्षमाभाव रखना ही महावीर भगवान् का महामार्ग है । भगवान् के इस महामार्ग पर चलोगे तो आपका कल्याण होगा । आज युधिष्ठिर तो रहे नही मगर उनकी कही बात रह गई है, इस बात को तुम ध्यान मे रखो और जीवनव्यवहार मे उतारो । धर्म की बात कहने मे और अमल मे लाने मे बडा अन्तर है । धम का अमल करने से मालूम होगा कि धर्म मे कैसी और कितनी शक्ति रही हुई है ! इसी प्रकार सघ का बल सगठित करके, व्यवहार किया