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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला विशेषोंको सामान्यमें अन्तर्गत किया जाता है; कितु जिसने सामान्य-विशेष का स्वरूप न जाना हो वह विशेषको सामान्यमें अंतर्लीन कैसे करे ?
पहिले अरिहन्त जैसे द्रव्य, गुण, पर्यायसे अपने आत्माको लक्षमें लेकर पश्चात् जिस जीवने गुण-पर्यायोंको एक द्रव्यमें संकलित किया है उसे
आत्माको स्वभावमें धारण कर रखा है। जहाँ आत्माको स्वभावमें धारण किया वहाँ मोहको रहनेका स्थान नहीं रहता अर्थात् मोह निराश्रयताके कारण उसी क्षण क्षयको प्राप्त होता है। पहिले अज्ञानके कारण द्रव्य, गुण पर्यायके भेद करता था इसलिये उन भेदोंके आश्रयसे मोह रह रहा था कितु जहाँ द्रव्य, गुण, पर्यायको अभेद किया वहॉ द्रव्य, गुण, पर्यायका भेद दूर हो जाने से मोह क्षयको प्राप्त होता है । द्रव्य, गुण, पर्यायकी एकता ही धर्म है और द्रव्य, गुण, पर्यायके बीच भेद ही अधर्म है।
पृथक २ मोती विस्तार है क्योंकि उनमें अनेकत्व है और सभी मोतियोंके अभेद रूपमें जो एक हार है सो संक्षेप है। जैसे पर्यायके विस्तार को द्रव्यमें संकलित कर दिया उसीप्रकार विशेष्य-विशेषणपन की वासना को भी दूर करके-गुणको भी द्रव्यमें ही अन्तर्हित करके मात्र आत्माको ही जानना और इसप्रकार आत्माको जाननेपर मोहका क्षय हो जाता है। पहिले यह कहा था कि 'मनके द्वारा जान लेता है किन्तु वह जानना विकल्प सहित था, और यहाँ जो जाननकी बात कही है वह विकल्प रहित अभेदका जानना है। इस जाननेके समय पर लक्ष तथा द्रव्य, गुण, पर्याय के भेदका लक्ष छूट चुका है।
__ यहाँ (मूल टीका ) द्रव्य, गुण, पर्यायको अभेद करनेसे संबंधित पर्याय और गुणके क्रमसे बात की है। पहिले कहा है कि 'चिद्-विवों को चेतनमें ही संक्षिप्त करके और फिर कहा है कि 'चैतन्यको चेतनमें ही अंतर्हित करके यहाँ पर पहिले कथन में पर्याय को द्रव्य के साथ अभेद करनेकी बात है और दूसरे में गुणको द्रव्य के साथ अभेद करने की