________________
---* सम्बग्दर्शन नहीं जाना और अपने स्वरूपको ठीक २ नहीं जाना, इसीलिये ही यह सब •भूल होती है।
-
मुमे परिपूर्ण स्वतंत्र सुख दशा चाहिये है, सुखके लिये जैसी स्वतंत्र दशा होनी चाहिये वैसी पूर्ण स्वतंत्र दशा अरिहन्तके है और अरिहंतके समान ही सब का स्वभाव है इसलिये मैं भी वैसा ही पूर्ण स्वभाववाला हूँ, इसप्रकार अपने स्वभाव की प्रतीति भी उसीके साथ मिलाकर बात की गई है । जिसने अपने ज्ञानमें यह निश्चय किया उसने सुखके लिये पराधीन दृष्टिकी अनंत खवदाहट का शमन कर दिया है। पहले अज्ञानरं जहाँ तहाँ खदबदाहट करता रहता था कि रुपये-पैसेमें से सुख प्राप्त करलू रागर्मेसे सुख लेलू, देव, गुरु, शास्त्रसे सुख प्राप्त करलू अथवा पुण्य करके सुख पालू-इसप्रकार परके लक्ष्यसे सुख मानता था, यह मान्यता दूर हो गई है और मात्र अपने स्वभावको ही सुखका साधन माना है, ऐसी समझ होने पर सम्यग्दर्शन होता है।
सम्यक्त्व कैसे होता है यह गत इस गाथामें कही गई है। भगवान अरिहन्त के न तो किंचित् पुण्य है और न पाप, वे पुण्य पाप रहित है, उनके ज्ञान, दर्शन, सुखमे कोई कमी नहीं है, इसी प्रकार मेरे स्वरूपमें भी पुण्य पाप अथवा कोई कमी नहीं है ऐसी प्रतीति करने पर द्रव्यदृष्टि हुई। अपूर्णता मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिये अब अपूर्ण अवस्था की ओर देखने की आवश्यकता नहीं रही किंतु पूर्ण शुद्ध दशा प्रगट करनेके लिये स्वभाव में ही एकाग्रता करने की आवश्यकता रही। शुद्ध दशा वाहरसे प्रगट होती है या स्वभाव से ? स्वभाव से प्रगट होनेवाली अवस्थाको प्रगट करने के लिये स्वभावमें ही एकाग्रता करनी है। इतना जान लेने पर यह धारणा दूर हो जाती है कि किसी भी अन्य पदार्थ की सहायताले मेग कार्य होता है वर्तमान पर्यायमें जो अपूर्णता है वह स्वभाव की एकाग्रताके पुरुपार्थके द्वारा पूर्ण करना है, अर्थात् मात्र ज्ञानमें ही क्रिया करनी है। यहाँ प्रत्येक पर्यायमें सम्यक् पुरुषार्थका ही काम है।