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________________ ६४ - सम्यग्दर्शन अरिहन्तके आत्माको, उनके गुणोंको और उनकी अनादि अनंत पर्यायोंको जो जानता है वह अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको जानता है और उसका मोह अवश्य तयको प्राप्त होता है । अरिहन्तका आत्मा परिस्पष्ट है - सब तरहसे शुद्ध है । उन्हें जानकर ऐसा लगता है कि अहो ! यह तो मेरे शुद्ध स्वभावका ही प्रतिविम्व है मेरा स्वरूप ऐसा ही है । इसप्रकार यथार्थतया प्रतीति होनेपर शुद्धसम्यक्त्व अवश्य ही प्रगट होता है । अरिहन्तका आत्मा ही पूर्ण शुद्ध है । गणधरदेव मुनिराज इत्यादि के आत्माओं की पूर्ण शुद्धदशा नहीं है इसलिये उन्हें जानने पर आत्माके पूर्ण शुद्ध स्वरूपका ध्यान नहीं आता । अरिहन्त भगवानके आत्माको जानने पर अपने आत्मा शुद्ध स्वरूपका ज्ञान अनुमान प्रमाणके द्वारा होता है और इसीलिये शुद्ध स्वरूपकी जो विपरीत मान्यता है वह क्षयको प्राप्त होती है । "अहो | आत्माका स्वरूप तो ऐसा सर्व प्रकार शुद्ध है, पर्याय में जो विकार है सो भी मेरा स्वरूप नही है । अरिहन्त जैसी ही पूर्णदशा होनेमें जो कुछ शेष रह जाता है वह मेरा स्वरूप नहीं है, जितना अरिहन्त में है उतना ही मेरे स्वरूप में है" इसप्रकार अपनी प्रतीति हुई अर्थात् अज्ञान और विकारका कर्तृत्व दूर होकर स्वभावकी ओर लग गया । और स्वभाव द्रव्यगुण पर्यायी एकता होनेपर सम्यग्दर्शन हो गया । अव उसी स्वभाव के आधारसे पुरुषार्थके द्वारा राग-द्वेषका सर्वथा क्षय करके अरिहंतके समान ही पूर्णदशा प्रगट करके मुक्त होगा । इसलिये अरिहन्तके स्वरूपको जानना ही मोहक्षयका उपाय है । यह वात विशेष समझने योग्य है, इसलिये इमे अधिक स्पष्ट किया जा रहा है । अरिहन्तकी लेकर बात उठाई है, अर्थात् वास्तवमें तो आत्मा पूर्ण शुद्ध स्वभावकी ओर से ही बातका प्रारम्भ किया है। अरिहन्तके समान ही इस आत्माका पूर्ण शुद्ध स्वभाव स्थापन करके उसे जाननेकी बात कही है । पहले जो पूर्ण शुद्ध स्वभावको जाने उसके धर्म होता है किन्तु जो जान
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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