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भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
(१४) हे जीवो ! सम्यक्त्व की आराधना करो
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जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तन्वोंका यथावत् निश्चय - आत्मामें उनका वास्तविक प्रतिभास ही सम्यग्दर्शन है | पण्डित और बुद्धिमान मुमुक्षुको मोक्ष स्वरूप परम सुख स्थानमें निर्विघ्न पहुँचाने में यह पहली सीढ़ीरूप है । ज्ञान, चारित्र और तप - यह तीनों सम्यक्त्व सहित हों तभी मोक्षार्थसे सफल हैं, वंदनीय है, कार्यगत है । अन्यथा वही ( ज्ञान, चारित्र और तप ) संसार के कारणरूप से ही परिगमित होते रहते हैं । संक्षेपमें - सम्यक्त्वरहित ज्ञान ही अज्ञान है, सम्यक्त्व रहित चारित्र ही कषाय, और सम्यक्त्व रहित तप ही काय - क्लेश है । ज्ञान, चारित्र और तप - इन तीनों गुणको उज्ज्वल करनेवाली — ऐसी यह सम्यक्श्रद्धा प्रथम आराधना है; शेष तीन आराधनाएँ एक सम्यक्त्व की विद्यमानता ही आराधक भावरूप वर्तती है । इसप्रकार सम्यक्त्वकी अकथ्य और अपूर्व महिमा जानकर उस पवित्र कल्याण मूर्तिरूप सम्यक् - दर्शनको, इस अनंतानंत दुःखरूप अनादि संसारकी आत्यंतिक निवृत्तिके अर्थ भव्यों ! तुम भक्ति भाव पूर्वक अंगीकार करो, प्रति समय श्राराधना करो । ( श्री आत्मानुशासन पृ० ६ ) चार आराधनाओं में सम्यक्त्व आराधनाको प्रथम कहनेका क्या कारण है ? - ऐसा प्रश्न शिष्यको उठने पर आचार्यदेव उसका समाधान करते है:
शम बोध वृत्त तपसां पाषाणस्यैव गौरवं पुपः । पूज्यं महामणेरिव, तदेव सम्यक्त्व संयुक्तम् ।। १५ ।।
ॐ
आत्माको मंद कषायरूप उपशमभाव, शास्त्राभ्यास रूप ज्ञान, पापके त्यागरूप चारित्र और अनशनादिरूप तप - इनका जो महत्पना है वह सम्यक्त्वके बिना मात्र पाषाण बोके समान है, - आत्मार्थ फलदायी नही है । परन्तु यदि वही सामग्री सम्यक्त्व सहित हो तो महामणि समान