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________________ सम्यग्दर्शन इसलिये वह सदा अपने आत्मामें ही है। यदि कोई पूछे कि भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव कहाँ हैं ? तो-वर्गादिक बाह्य क्षेत्रों में नहीं किन्तु अपने आत्मामें ही हैं । जिसने कभी किसी पर पदार्थको अपना नहीं माना, और एक चेतनास्वभाव को ही निजस्वरूपसे अंगीकार किया है वह चेतनास्वभाव के अतिरिक्त अन्यत्र कहाँ जायगा ? जिसने चेतनाके द्वारा - अपना ग्रहण किया है वह सदा अपने आत्मामें ही टिका रहता है । जिसमें जिसकी दृष्टि पड़ी है उसमें वह सदा बना रहता है। वास्तवमें कोई भी जीव अपनी चैतन्य भूमिकासे बाहर नहीं रहता; किन्तु अपनी चैतन्य भूमिकामें जैसे भाव करता है वैसे ही भावोंमें रहता है। ज्ञानी ज्ञानभावमें और अज्ञानी अज्ञानभावमें रहता है। बाहरसे चाहे जो क्षेत्र हो किन्तु जीव अपनी चैतन्य भूमिकामें जो भाव करता है, उसी भावको वह भोगता है, बाह्य संयोगको नहीं भोगता । (श्री समयप्राभृत गाथा २६७ के व्याख्यानसे, सोनगढ़) 0000000000000000000000000 तीनलोकमें सम्यग्दर्शनकी श्रेष्ठता तानलोकन ___एक पहलूमें सम्यग्दर्शनका लाभ हो और दूसरे पहलू में तीनलोक के राज्यका लाभ प्राप्त हो, तो वहीं पर तीन लोकके लाभ से भी , सम्यग्दर्शनका लाभ श्रेष्ठ है, क्योंकि तीनलोकका राज्य पाकर भी अल्पपरिमित कालमें वह छूट जाता है और सम्यग्दर्शनका लाभ होने पर तो जीव अक्षय मोक्ष सुखको पाते ही हैं। (भगवती आराधना ७४६-४७) 5000000000000000000000000 ७00000000000000000 000000000000000000
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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