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-* सम्यग्दर्शन
पड़ता, लेकिन एक ही साथ विकल्प टूटकर ज्ञान निजमें एकाग्र होजाता है । जिस समय ज्ञान निजमें एकाग्र होता है उसी समय रागसे पृथक होजाता है । पहले ज्ञान स्वोन्मुख हो और फिर राग अलग हो - इसप्रकार क्रम नहीं होता ।
प्रश्न- इसे समझना तो कठिन मालूम होता है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई सरल मार्ग है या नहीं ?
उत्तर- - अरे भाई ! इस दुनियादारी में बड़े बड़े वेतन लेता है. और विकटतम कार्योंके करनेमें अपनी बुद्धि लगाता है, वहाँ सब कुछ समझ आजाता है और बुद्धि खूब काम करती है, किन्तु इस अपने आत्माकी बात समझने में बुद्धि नहीं चलती; भला यह कैसे हो सकता है ? स्वयं तो आत्माकी चिंता नहीं है और रुचि नहीं है, इसीलिये उसकी बात समझमें नहीं आती इसे समझे बिना मुक्तिका अन्य कोई भी उपाय नही है ।
संसारके कार्योंमें सयान करके रागको पुष्ट करता है और जब आत्माको समनेका प्रयत्न करनेकी बात आती है तो कहता है कि मेरी समझ नहीं आता ।
लेकिन यह भी तो विचार कर कि तुझे किसके घरकी यात सम में नहीं आती? तू आत्मा है कि जड़ है ? यदि श्रात्माकी मनम बात नहीं आयेगी तो क्या जड़की समम्मे आयेगी ? ऐसी कोई यात ही नहीं जो चैतन्यके ज्ञानमें न समझी जा सकती हो चैतन्य गुण समझने की शक्ति है 'समझ नहीं आ सकता यह बात पती है। जो यह कहता है कि आत्माकी बात समन नहीं की उसे आपके प्रति रुचि ही नहीं, प्रत्युत जड़के प्रति नि है। सम्यकूलान है और संसारका मार्ग एक मान अज्ञान है। समय दि
मार्ग मात्र
* प्रश्न