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________________ ३६ * सम्यग्दर्शन कि इधर सुईमें डोरा डाल दिया, इसमें एक क्षण मात्रका प्रमाद नहीं चल सकता, इसीप्रकार चैतन्यमें सम्यकज्ञान रूपी सत्को पानेके लिये चैतन्यकी एकाग्रता और तीव्र आकांक्षा होनी चाहिये । अहो । यह चैतन्य भगवान को पहिचाननेका सुयोग प्राप्त हुआ है, यहाँ प्रत्येक क्षण अमूल्य है, आत्म प्रतीतिके विना उद्धारका कहीं कोई मार्ग नही, इसलिये अभी ही किसी भी तरह आत्म प्रतीति कर लेनी चाहिये। इसप्रकार स्वभावकी रुचि प्रगट करने पर विकारका वल नष्ट हो जाता है। यह विकार अपने चैतन्यकी शोभा नहीं किन्तु कलंक है। मेरा चैतन्य तत्त्व उससे भिन्न असंग है। इसप्रकार निरन्तर स्वभावकी रुचि और पुरुषार्थके अभ्यासके द्वारा प्रज्ञारूपी छैनीको चलाना चाहिये। ३-निपुण पुरुषोंके द्वारा यहां लौकिक निपुणताकी वात नहीं किन्तु स्वभावका पुरुषार्य करनेमें निपुणताकी बात है। लौकिक बुद्धिमें निपुण होने पर भी उसे स्वयं शंका वनी रहती है कि मेरा क्या होगा ? इसीप्रकार जिसे ऐसी शंका बनी रहती है कि "तीव्र कर्म उदयमें आयेंगे तो मेरा क्या होगा? यदि अभी मेरे बहुतसे भव शेष होंगे तो क्या होगा ? मुझे प्रतिकूलता आगई तो क्या होगा ?" तो वह निपुण नहीं किन्तु अशक्त पुरुषार्थहीन पुरुष है। जो ऐसी पुरुषार्थहीनता की वाते करता है वह प्रजारूपी छैनीका प्रहार नहीं कर सकता, इसीलिये कहा है कि 'निपुण पुरुषोंके द्वारा चलाई जाने पर' अर्थात् जिसे कर्मोंके उदयका लक्ष्य नहीं किन्तु मात्र स्वभावकी प्राप्तिका ही लक्ष्य है और जिसे अपने स्वभाव की प्राप्तिके पुरुषार्थके बलसे मुक्तिकी निःसंदेहता ज्ञात है ऐसे निपुण पुरुष ही तीव्र पुरुषार्थके द्वारा प्रज्ञारूपी छैनीको चलाकर भेदविज्ञान करते है। ४-सावधान होकर अर्थात् प्रमाद और मोहको दूर करके चलानी चाहिये । यदि एक क्षण भी सावधान होकर चैतन्यका अभ्यास करे तो अवश्य ही भेदज्ञान और मोक्ष प्राप्त हो जाय। जो चैतन्यमें
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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