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~* सम्यग्दर्शन भाव रहता है और वह रागका भी स्वामित्व नहीं मानता, वह धर्मात्मा है। जो ऐसे धर्मात्माको आंतरिक चिह्नोंके द्वारा नहीं पहिचानता और वाहरसे माप करता है वह वास्तवमें आत्माको नहीं समझता। जो अन्तरंग में आत्माकी पवित्र दशाको नहीं समझते वे मात्र जड़के संयोगसे ही माप निकालते हैं। धर्मी और अधर्मीका माप संयोगसे नहीं होता इतना ही नहीं किन्तु रागकी मंदतासे भी धर्मी और अधर्मीका माप नहीं होता । धर्मी और अधर्मीका माप तो अन्तरंग अभिप्रायसे निकाला जाता है।
___ वाह्य त्यागी और मंद रागी होने पर भी जो बन्ध भावको अपना स्वरूप मानता है वह अधर्मी है और वाह्य में राजपाटका संयोग हो तथा राग विशेष दूर न हुआ हो तथापि जिसे अन्तरंगमें बन्धभावसे भिन्न अपने स्वरूपकी प्रतीति हो वह धर्मी है। जो शरीरकी क्रियासे, बाहरके त्यागसे अथवा रगाकी मंदतासे आत्माकी महत्ता मानता है वह शरीरसे भिन्न, संयोगसे रहित और विकार रहित आत्मस्वभावकी हत्या करता है, वह महापापी है । स्वभावकी हिंसाका पाप सबसे बड़ा पाप है।
बाहरका बहुत सा त्याग और बहुत सा शुभराग करके अज्ञानी लोग यह मान वैठते हैं कि इससे हम मुक्त हो जायेंगे, किन्तु हे भाई । तुमने आत्माके धर्मका मार्ग ही अभी नहीं जान पाया, तव फिर मुक्ति तो कहाँ से मिलेगी ? अन्तरंग स्वभावका ज्ञान हुए बिना आंतरिक शांति नहीं मिल सकती और विकार भावकी आकुलता दूर नहीं हो सकती। MIN (१४) सम्यक्ज्ञान ही मुक्तिका सरल मार्ग है।
आत्माके स्वभावको समझनेका मार्ग सीघा और सरल है। यदि यथार्थ मार्गको जानकर उसपर धीरे २ चलने लगे तो भी पंथ कटने लगे, परन्तु यदि मार्ग को जाने बिना ही आंखों पर पट्टी बांधकर तेलीके लकी तरह चाहे जितना चलता रहे तो भी वह घूम धामकर वहींका वहीं बना रहेगा । इसीप्रकार स्वभावका सरल मार्ग है उसे जाने विना ज्ञान नेत्रोंको