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* सम्यग्दर्शन जा रहा है। अज्ञानीके ज्ञान और रागके वीच अभेद बुद्धि ( एकल बुद्धि) है जो कि मिथ्याज्ञान है । ज्ञानीने प्रज्ञारूपी छैनीके द्वारा राग और ज्ञानको पृथक् करके पहिचाना है, जो कि सम्यकज्ञान है । ज्ञान ही मोनका उपाय है और ज्ञान ही मोक्ष है। जो सम्यकज्ञान साधकदशाके रूप में था वही सम्यकज्ञान बढ़कर साध्य दशा रूप हो जाता है। इसप्रकार ज्ञान ही साधक-साध्य है। आत्माका अपने मोक्षके लिये अपने गुणके साथ सम्बन्ध होता है या पर द्रव्योंके साथ ? आत्माका अपने नानके साथ ही सम्बन्ध है, परखव्यके साथ आत्माके मोक्षका सम्बन्ध नहीं है। आत्मा परसे तो पृथक है ही किन्तु यहाँ अंतरंगमें यह भेदज्ञान कराते हैं कि वह विकार से भी पृथक है। विकार और आत्मा में भेद कर देना ही विकारके नाशका उपाय है । रागकी क्रिया मेरे स्वभाव में नहीं है इसप्रकार सम्यक्ज्ञानके द्वारा जहाँ स्वभाव शक्तिको स्वीकार किया कि विकारका जाता होगया । जैसे विजलीके गिरनेसे पर्वत फट जाता है उसी प्रकार प्रज्ञारूपी छैनीके गिरनेसे स्वभाव और विकारके वीच दरार पड़ जाती है तथा ज्ञान स्वोन्मुख हो जाता है और जो अनादि कालीन विपरीत परिणमन था वह रुककर अब स्वभाव की ओर परिणमन प्रारम्भ हो जाता है। इसमें स्वभावका अनन्त पुरुषार्थ है।
(११) द्रव्यलिंगी साधुने क्या किया ?
अज्ञानीको राग द्वेपके समय ज्ञान अलग नहीं दिखाई देता इसलिये वह आत्मा और वन्धके वीच भेद नहीं समझता । आत्मा और वन्धके वीच भेदको जाने विना द्रव्यलिंगी साधु होकर नत्रमें प्रेयक तक जाने योग्य चारित्रका पालन किया और इतनी मंदकयाय करली कि यदि कोई उसे जला डाले तो भी वाह्य क्रोध न करे, छह छह महीने तक श्राहार न करे तथापि भेद जानके विना अनंत संसारमें ही परिभ्रमण करता है। उसने आत्माका कोई भला नहीं किया किन्तु वह मात्र वन्यमायके प्रकारको ही बदलता रहता है।
प्रश्न-इतना सब करने पर भी कुछ नहीं होना ?