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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
अर्थः-भगवान सूत्रकार कहते हैं किः-"अधिक कहने से क्या साध्य है ? नो नरप्रधान भूतकाल में सिद्ध हुए हैं तथा भविष्य में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानो।"
भावार्थ:-इस सम्यक्त्व का ऐसा माहात्म्य है कि आठ कर्मोंका नाश करके जो भूतकालमें मुक्तिको प्राप्त हुए है और भविष्य में होंगे, वे इस सम्यक्त्व से ही हुए है और होंगे। इससे आचार्य देव कहते हैं कि विशेष क्या कहा जाये ? संक्षेप में समझ लो कि मुक्तिका प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत समझो कि गृहस्थों का क्या धर्म होता है। यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि जो सर्व धर्म के अंग को (श्रावक धर्म और मुनिधर्म को) सफल करता है। । अब ऐसा कहते है कि जो निरन्तर सम्यक्त्वका पालन करते हैं वे धन्य हैं:
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्म सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं ॥ ८९ ॥ ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेऽपि पंडिता मनुजाः । सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेपि न मलिनितं यः ॥ ८९ ॥
अर्थः—जिस पुरुपको मुक्तिका करने वाला सम्यक्त्व है, और उसे (सम्यक्त्व को ) स्वप्नावस्थामें भी मलिन नहीं किया है-अतिचार नहीं लगाया है वह पुरुप धन्य है, वही मनुष्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है और वही पडित है।
भावार्थ:-लोक में कोई दानादिक करे उसे धन्य कहते है; तथा विवाह यज्ञादिक करता है उसे कृतार्थ कहते है, युद्धसे पीछे न हटे उसे शूरवीर कहते हैं, अनेक शास्त्र पढ़े हों उसे पंडित कहते हैं यह सब कथनमात्र है। मोक्षका कारण जो सम्यक्त्व है उसे मलिन न करे,