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भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
अपना भला बुरा अपने परिणामोंसे ही होता है इस प्रकार मानने वाला भगवानका सच्चा सेवक है ।
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जो यह मानता है कि अपना भला बुरा होना अपने परिणामों पर निर्भर है और उसी रूप स्वयं प्रबृत्ति करता है तथा अशुद्ध कार्यों को छोड़ता है वही जिनदेवका सच्चा सेवक है ।
जिसे जिनदेवका सच्चा सेवक होना हो तथा जिनदेवके द्वारा उपदिष्ट मार्गरूप प्रवृत्ति करना हो उसे सबसे पहले जिनदेवके सच्चे स्वरूप का अपने ज्ञानमें निर्णय करके उसका श्रद्धान करना चाहिये, उसका यही कव्य है ।
८. श्रावकों का प्रथम कर्तव्य
श्रावक को प्रथम क्या करना चाहिये ? गहिऊण य सम्मत्तं रुणिम्मलं सुरगिरीव णिकंपं । तंझाणे भाइज सावय ! दुक्खक्खयट्ठाए ॥ ८६ ॥ गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरेरिव निष्कंपम् । तन् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ।। ८६ ।।
अर्थः- प्रथम तो श्रावक को, सुनिर्मल कहने से भलीभांति निर्मल और मेरुवत् निष्कंप, अचल और चलमलिन तथा अगाढ़-इन तीन दूषणों से रहित अत्यन्त निश्चल - ऐसे सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसे ( सम्यक्त्वके विषय भूत एकरूप आत्मा को ) ध्यान में ध्याना चाहिये, किसलिये ध्याना चाहिये ? - दुःख के क्षन के लिये ।
भावार्थ:- श्रावक को प्रथम तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्व को प्रहण करके उसका ध्यान करना चाहिये कि जिस सम्यक्त्व की भावना स गृहस्थ को गृहकार्य सम्बन्धी आकुलता, क्षोभ, दुःख हो वह मिट जाये । कार्य के बिगड़ने - सुधरने में वस्तु के स्वरूपका विचार आये उस समय