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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला २५३ तथापि जो जीव देव, गुरु, शास्त्रसे लाभ और कर्मसे हानि मानते हैं उनके व्यवहार श्रद्धा भी नहीं है, तब वे अंशका निषेध करके त्रिकाली स्वभावकी श्रद्धा क्यों करेंगे? कषायकी मन्दता तो अभव्य भी अनन्तबार करते हैं। पर्याय स्वतंत्र है-ऐसी आंशिक स्वतंत्रताको स्वीकार किये बिना मिथ्यात्वका रस भी यथार्थरूपसे मन्द नहीं होता। प्रश्न-कपायकी मन्दता यां मिथ्यात्व-रसकी मन्दता इन दोनोंमें से कोई भी मोक्षमार्गरूप नहीं है, तो उनमें क्या अन्तर है ? . उत्तर-यहां दोनोंके पुरुषार्थका अन्तर बतलाना है। किन्तु पर्याय की स्वतंत्रता स्वीकार करनेसे कहीं मोक्षमार्ग नहीं होजाता । पर्यायकी स्वतंत्रता भी अनंत बार मानी तथापि सम्यग्दर्शन नहीं हुआ। किन्तु यहां व्यवहारसे उन दोनोंमें जो अन्तर है वह बतलाना है। ___ कषायकी मन्दता करनेसे कहीं व्यवहारश्रद्धा नहीं होती, क्योंकि व्यवहार-श्रद्धाका पुरुषार्थ उससे भिन्न है। यद्यपि दोनों पुण्य और मिथ्यात्व हैं किन्तु मिथ्यात्वके रसकी अपेक्षासे उसमें अन्तर है। जिसप्रकार कुगुरु-कुदेव-कुशास्त्रकी श्रद्धा और सुदेवादि की श्रद्धा दोनों मिथ्यात्व हैं तथापि कुदेवादिकी श्रद्धामें तीन मिथ्यात्व है और सुदेपादिकी श्रद्धामें मन्द, इसीप्रकार यहां भी समझना चाहिये। दो जीव शुभभाव करते हैं, उनमेंसे एक अपनी पर्यायको स्वतंत्र नहीं मानता तथा दूसरा शास्त्रादिके ज्ञानसे पर्यायकी स्वतंत्रता मानता है, उनमें पहले जीवको व्यवहारज्ञान भी यथार्थ नहीं है, दूसरे जीवको व्यवहारज्ञान है। इस अपेक्षासे दोनोंके पुरुषार्थमें अन्तर समझना चाहिये। परमार्थसे दोनों समान हैं। पहले पर्यायको स्वतंत्र समझे बिना कौन त्रिकाली स्वभावकी और , उन्मुख होगा ? व्यवहार-श्रद्धा मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु पर्यायकी स्वतंत्रता का ज्ञान अपने शुद्ध चैतन्य स्वभावकी ओर उन्मुख होनेके लिये प्रयोजनभूत है । जो वर्तमान पर्यायकी स्वतंत्रता को नहीं मानता वह सर्व
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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