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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१३ आश्रित है इसलिये जो ससुरुष हैं उन्हें अपने कल्याणके लिये सर्व सुखका मूलकारण जो प्राप्त-अरहंत सर्वज्ञ है उनका युक्तिपूर्वक भलीभांति सर्व प्रथम निर्णय करके आश्रय लेना चाहिये।
___ अब जिनका उपदेश सुनते है और जिनके कहे हुये मार्ग पर चलना चाहते हैं तथा जिनकी सेवा पूजा, आस्तिकता, जाप, स्मरण, स्तोत्र, नमस्कार और ध्यान करते हैं ऐले जो अरहंत सर्वज्ञ हैं उनका स्वरूप पहले अपने ज्ञान में जो प्रतिभासित हुआ ही नहीं है तब फिर तुम निश्चय किये बिना किसका सेवन करते हो।
___ लोक में भी इसी प्रकार-अत्यत निष्प्रयोजन बात का निर्णय करके प्रवृत्ति की जाती है और इधर तुम आत्महितके मूल आधारभूत
रहंतदेवका निर्णय किये विना ही प्रवृत्ति कर रहे हो यह बड़े ही आश्चर्य की बात है।
_ और फिर तुम्हे ही निर्णय करने योग्य ज्ञान भी प्राप्त हुआ है इसलिये तुम इस अवसर को वृथा मत गंवायो। आलस्य आदि छोड़कर उसके निर्णयमें अपनेको लगाओ, जिससे तुम्हे वस्तुका स्वरूप, जीवादिका स्वरूप, स्वपरका भेद विज्ञान, आत्माका स्वरूप, हेय उपादेय और शुभअशुभ-शुद्ध अवस्थारूप, अपने पद अपदका स्वरूप सर्वप्रकारसे यथार्थ ज्ञात हो सके। इसलिये सर्व मनोरथ सिद्ध करनेका उपाय जो अहंतसर्वज्ञ का यथार्थ ज्ञान है वह जिस प्रकार से सिद्ध हो वह प्रथम करना योग्य है।
सबसे पहले अहंत सर्वत्रका निर्णय करने रूप कार्य करना चाहिये यही श्री गुरुकी मूल शिक्षा है।
सच्चा ज्ञान सम्यग्दृष्टि के होता है। अपने अपने प्रकरणमें अपना अपना ज्ञेय सम्बन्धी यथार्थ जाननेका अल्प अथवा विशेष ज्ञान सर्वज्ञके होता है क्योंकि लौकिक कार्य तो सभी जीव यथार्थ ही करते हैं इसलिये लौकिक सम्यग्ज्ञान सभी जीवोंके