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-* सम्यग्दर्शन तीन प्रकारकी मूढताओंमें गुरुमूढता विशेप है उसमें धर्मके नाम पर स्वयं अधर्म करता हुआ भी धर्म मानता है। उदाहरणके रूपमें दुकानमें बैठा हुआ आदमी यह नहीं मानता कि मैं अभी सामायिक-धर्म करता हूँ किन्तु धर्म स्थानमें जाकर अपने माने हुए गुरु अथवा बड़े लोगोंके कथनानुसार अमुक शब्द बोलता है, जिनका अर्थ भी स्वयं नहीं जानता और उसमें वह जीव मान लेता है कि मैंने सामायिक धर्म किया। यदि शुभभाव हो तो पुण्य हो किन्तु उस शुभमें धर्म माना अर्थात् अधर्मको धर्म माना; यही मिथ्यात्व है।
स्वयं विचार शक्ति वाला होकर भी नये नये भ्रमोंको पुष्ट करता रहता है, यही गृहीत मिथ्यात्व है। यहॉपर मिथ्यात्वके सम्बन्धमें दो बातें कही गई है। (१) अनादि कालसे समागत पुण्यसे धर्म होता है और मैं शरीरका कार्य कर सकता हूँ; इसप्रकारकी जो विपरीत मान्यता है सो अगृहीत मिथ्यात्व है । (२) लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ताके सेवनसे कुदेव,-कुगुरुके द्वारा जीव विपरीत मान्यताको पुष्ट करनेवाले भ्रम ग्रहण करता है, यही गृहीत मिथ्यात्व है। सच्चे देव-धर्मकी तथा अपने आत्म स्वरूपकी सच्ची समझके द्वारा इन दोनों मिथ्यात्वोंको दूर किये विना जीव कभी भी सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं हो सकता। और सम्यग्दर्शनके विना कभी भी धर्मात्मापन नहीं हो सकता; इसलिये जिज्ञासुओंको प्रथम भूमिकामें ही गृहीत अगृहीत मिथ्यात्वका त्याग करना आवश्यक है।
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बंध-मोक्षका कारण परद्रव्यके चिंतन वह बंधनके कारण हैं और केवल विशुद्ध र स्व-द्रव्यके चिंतन ही मोक्षके कारण हैं।
[तत्त्वज्ञान तरंगिणी १५-१६ ]