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________________ १६२ -~* सम्यग्दर्शन परद्रव्योंके संयोग-वियोगसे आत्माको लाभ होता है-इस मान्यताका पहले ही निषेध किया है, और इस स्थूल मान्यता का भी निपेध किया है कि पुण्यसे धर्म होता है । इस प्रकार परकी ओर के विचारको और धूल मिथ्या मान्यताको छोड़कर अव जो स्वोन्मुख होना चाहता है ऐसा जीव एक आत्मामें निश्चयसे शुद्ध और व्यवहारसे अशुद्ध' ऐसे दो भेद करके उसके विचारमें अटक रहा है, किन्तु विकल्पसे पार होकर साक्षात् अनुभव नहीं करता; उसे वह विकल्प छुड़ा कर अनुभव करानेके लिये आचार्य देवने यह १४२ वीं गाथा कही है। अन्य पदार्थोंका विचार छोड़कर एक आत्मामें दो विभेदों (पहलुओं) के विचारमें लग गया किन्तु आचार्यदेव कहते है कि इससे क्या ? लब तक वह विकल्पके अवलम्बनमें रुका रहेगा तब तक धर्म नहीं है, इसलिये जैसा स्वभाव है वैसा ही अनुभव कर। अनुभव करने वाली पर्याय स्वयं द्रव्यमें लीन-एकाकार हो जाती है और उस समय विकल्प टूट जाता है। ऐसी दशा ही समयसार है, वही सम्यग्दर्शन है, वहीं सम्यग्ज्ञान है। परवस्तुमें सुख है या मैं परका कार्य कर सकता हूँ और मेरा कार्य परसे होता है-यह स्थूल मिथ्या मान्यता है, और आत्माको अमुक वस्तु खपती है, अमुक नहीं खपती, ऐसा विकल्प भी स्थूल परिणाम है इसमें धर्म नहीं है और मै 'शुद्ध श्रात्मा हूँ, तथा राग मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे राग मिश्रित विचार करना भी धर्म नहीं है । इस रागका अवलम्यन बोडार आत्मस्वभावका अनुभव करना सो धर्म है । एक चार विकल्पको तोड़कर शुद्ध स्वभावका अनुभव करसेके वाद जो विकल्प उठने है उन विकल्पों में सम्यग्दृष्टि जीवको एकत्व बुद्धि नहीं होती, इसलिये वे विकल्प मात्र अधिरतारूप दोप है, परन्तु वे सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञानको मिण्या नहीं करने क्योंकि विकल्पके समय भी सम्यग्दृष्टि उसका निषेध करता है। कितने ही अज्ञानी ऐसी शंका करने है कि यदि जीरो नमन हुआ हो और श्रात्माकी प्रतीति होगई हो तो उसे खाने पीने शादिशा
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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