________________
१८८
-* सम्यग्दर्शन निर्मल बुद्धिमान् जीवोंका कर्तव्य है । अपने भवरहित स्वभाव की श्रद्धासे अल्पकालमें ही भवरहित हो जायगा । इसलिये हे भाई! पहले तू किसी भी प्रयत्नसे परम पुरुषार्थके द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट कर ।
प्रश्न:-आप सम्यग्दर्शनका अपार माहात्म्य बतलाते हैं यह तो ठीक है, यही करने योग्य है, किन्तु यदि इसका स्वरूप समझमें न आये तो क्या करना चाहिये ?
___उत्तरः-सम्यग्दर्शनके अतिरिक्त आत्मकल्याणका दूसरा कोई मार्ग ( उपाय ) तीन काल-तीन लोकमें नहीं है इसलिये जब तक सम्यग्दर्शनका स्वरूप समझमें न आये तब तक उसका ही अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिये। आत्मस्वभावकी यथार्थ समझका ही प्रयत्न करते रहना चाहिये । यही सीधा-सच्चा उपाय है। यदि तुझे आत्मस्वभावकी यथार्थ रुचि है, और सम्यग्दर्शनकी अपार महिमाको समझकर उसकी अकुलाहट हुई है तो तेरा समझनेका प्रयत्न व्यर्थ नहीं नायगा। स्वभाव की रुचि पूर्वक जो जीव सत्के समझनेका अभ्यास करता है उस जीवके प्रतिक्षण मिथ्यात्वभावकी मन्दता होती है। एक क्षण भी समझनेका प्रयत्न निष्फल नहीं जाता, किन्तु प्रतिक्षण उसका कार्य होता ही रहता है। स्वभावकी प्रीतिसे जो जीव समझना चाहता है उस जीवके ऐसी निर्जरा प्रारम्भ होती है, जो कभी अनन्तकालमें भी नहीं हुई थी। श्री पद्मनन्दि
आचार्यने कहा है कि इस चैतन्य स्वरूप आत्माकी बात भी जिस जीव ने प्रसन्न चित्तसे सुनी है वह मुक्तिके योग्य है।
इसलिये हे भव्य ! इतना तो अवश्य करना ।
---
४०-१. पाप पर द्रव्यके प्रति राग होने पर भी जो जीव मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे