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-* सम्यग्दर्शन करने योग्य है । किन्तु यदि तुझसे चारित्रदशा प्रगट न हो सके तो कमसे कम आत्मस्वभावकी यथार्थ श्रद्धा तो अवश्य करना, इस श्रद्धा मात्रसे भी अवश्य तेरा कल्याण होगा।
मात्र सम्यग्दर्शनसे भी तेरा आराधकत्व चलता रहेगा। वीतराग देवके कहे हुए व्यवहारका विकल्प भी हो तो उसे भी वंधन मानना। पर्यायमें राग होता हो तथापि ऐसी प्रतीति रखना कि राग मेरा स्वभाव नहीं है, और इस रागके द्वारा मुझे धर्म नहीं है। ऐसे राग-रहित स्वभावकी श्रद्धा सहित जो राग-रहित चारित्रदशा हो सके तो वह प्रगट करके स्वरूपमें स्थिर होजाना, किन्तु यदि ऐसा न हो सके और राग रह जाये तो उस रागको मोक्षका हेतु नहीं मानना, राग-रहित अपने चैतन्य स्वभावकी श्रद्धा रखना।
कोई ऐसा माने कि पर्यायमें राग हो तवतक राग रहित स्वभावकी श्रद्धा कैसे हो सकती है ? पहले राग दूर हो जाय, फिर राग-रहित स्वभाव की श्रद्धा हो । इसप्रकार जो जीव रागको ही अपना स्वरूप मानकर सम्यकश्रद्धा भी नहीं करता उससे आचार्य भगवान कहते हैं कि हे जीव ! तू पर्यायदृष्टिके रागको अपना स्वरूप मान रहा है। किन्तु पर्यायम राग होते हुए भी तू पर्यायदृष्टि छोड़कर स्वभावदृष्टिसे देख तो तुझे राग-रहित अपने स्वरूपका अनुभव हो । जिस समय क्षणिक पर्यायमें राग है, उस समय ही राग-रहित त्रिकाली स्वभाव है, इसलिये पर्यायदृष्टि छोड़कर नू अपने राग-रहित स्वभावकी ही प्रतीति रखना । इस प्रतीतिके वलसे अल्पकालगे राग दूर हो जावेगा, किन्तु इस प्रतीतिके विना कभी भी राग नहीं टल सकेगा।
"पहले राग दूर हो जाय तो मैं राग-रहित स्वभावकी या फल" ऐसा नहीं है। आचार्य देव कहते हैं कि पहले तु रागरहित रसभावी पक्षा कर तो उस स्वभावकी एकाग्रता झरा राग दूर हो । "राग दूर होगो Kal करूं' अर्थात "पर्याय सुधरे तो द्रव्य मानू" ऐसी जिसकी मान्या है या