________________
-* सम्यग्दर्शन भाव उसकी साक्षी नहीं देगा, और सम्यकदृष्टिके मिथ्याभ्रममें ही नीवन व्यर्थ चल जायेगा । इसलिये ज्ञानीजन सचेत करते हुए कहते हैं कि"ज्ञान चारित्र और तप तीनों गुणोंको उज्ज्वल करने वाली सम्यक् श्रद्धा प्रधान आराधना है। शेष तीन आराधनायें एक सम्यक्त्वके विद्यमान भाव में ही आराधक भावसे होती हैं। इसप्रकार सम्यक्त्वकी अकथ और अपूर्व महिमाको जानकर उस पवित्र कल्याणमूर्तिस्वरूप सम्यग्दर्शनको अनन्तानन्त दुःखरूप अनादि संसारकी आत्यन्तिक निवृत्तिके हेतु हे भव्य जीवो ! भक्ति पूर्वक अंगीकार करो, प्रति समय आराधना करो,
[ारमानुशासन पृष्ठ ६ से ] निःशंक सम्यग्दर्शन होने से पूर्व संतोष मान लेना और उस आराधनाको एक ओर छोड़ देना-इसमें अपने प्रात्मस्वभावका और कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनका महा अपराध और अभक्ति है, जिसके महा दुःखदायी फलका वर्णन नहीं किया जा सकता । जैसे सिद्धोंके सुनका वर्णन नहीं किया जा सकता उसीप्रकार मिथ्यात्वके दुःखका वर्णन नहीं किया जा सकता।
___ आत्मवस्तु मात्र द्रव्यरूप नहीं, किन्तु द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप है। "आत्मा अखण्ड शुद्ध है जो ऐसा सुनकर मान ले परन्तु पर्यायको न समझे, अशुद्ध और शुद्ध पर्यायका विवेक न करे उसे सम्यक्त्व नहीं हो सकता। कदाचित् ज्ञानके विकाससे द्रव्य-गुण-पर्यायके स्वरूपको (विकल्प ज्ञानके द्वारा) जान ले, तथापि इतने मात्रसेनीवका यथार्थ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। क्योंकि वस्तुस्वरूपमें एक मात्र ज्ञानगुण ही नहीं परन्तु श्रद्धा, सुख इत्यादि अनन्तगुण हैं, और जव वे सभी गुण अंशतः स्वभावरूप कार्य करते हैं। तभी जीवका सम्यग्दर्शनरूपी प्रयोजन सिद्ध होता है। ज्ञानगुणने विकल्पके द्वारा आत्माको जाननेका कार्य किया परन्तु तब दूसरी ओर श्रद्धागुण मिथ्यात्वरूप कार्य कर रहा है, और आनन्दगुण आकुलताका संवेदन कर रहा है यह सब भूल जाये और मात्र ज्ञानसे