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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द कहान जैन शास्त्रमाला होनेवाला है दोनों द्रव्य त्रिकाल भिन्न हैं । जीव यदि अपने स्वरूपको यथार्थ समझना चाहे तो वह पुरुषार्थके द्वारा अल्पकालमें समझ सकता | जीव अपने स्वरूपको जब समझना चाहे तब समझ सकता है, स्वरूप के समझ में अनन्त काल नहीं लगता, इसलिये यथार्थ समझ सुलभ है । यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेकी रुचिके प्रभावमें ही जीव अनादि काल से अपने स्वरूपको नहीं समझ पाया इसलिये आत्मस्वरूप समझनेकी रुचि करो और ज्ञान प्राप्त करो । ४. द्रव्यदृष्टिकी महिमा ५ जो कोई जीव एकबार भी द्रव्यदृष्टि धारण कर लेता है उसे अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होती है । I (१) द्रव्यदृष्टिमें भव नहीं:- आत्मा वस्तु है । वस्तुका मतलब हैसामर्थ्य से परिपूर्ण, त्रिकालमें एकरूप अवस्थित रहनेवाला द्रव्य । इस द्रव्यका वर्तमान तो सर्वदा उपस्थित है ही । अब यदि वह वर्तमान किसी निमित्ताधीन है तो समझलो कि विकार है अर्थात् संसार है । और यदि वह वर्तमान स्वाश्रय स्थित है, तो द्रव्यमें विकार न होनेसे पर्यायमें भी विकार नहीं है अर्थात् वही मोक्ष है । दृष्टिने जिस द्रव्यको लक्ष्य किया है उस द्रव्यमें भव या भवका भाव नहीं है इसलिये उस द्रव्यको लक्षित करनेवाली अवस्थामें भी भव या भवका भाव नहीं है । यदि आत्मा अपनी वर्तमान अवस्थाको “स्वलक्ष्य" से रहत धारण कर रहा है तो वह विकारी है। लेकिन फिर भी वह विकार मात्र एक समय (क्षण) पर्यन्त ही रहनेवाला है, नित्य द्रव्यमें वह विकार नहीं है । इस वास्ते नित्य-त्रिकालवर्ती द्रव्यको लक्ष्य करके जो वर्तमान अवस्था होती है उसमें कमीपना या विकार नही है । और जहां कमीपना या विकार नहीं है वहाँ भवका भाव नहीं है । और भवका भाव नहीं, इसलिये भव भी नहीं है । इसलिये द्रव्य स्वभावमें भव न होने से द्रव्य स्वभावकी दृष्टि भवका प्रभाव ही है । अर्थात् द्रव्यदृष्टि भवको स्वीकारती नहीं है । I 1
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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