________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
१४७
सम्यग्दर्शनके साथ जो सम्यग्ज्ञान रहता है उसका सम्बन्ध निश्चय - व्यवहार दोनोंके साथ है । अर्थात् निश्चय - अखण्ड स्वभावको तथा व्यवहार में पर्याय के जो भंग-भेद होते हैं उन सबको सम्यग्ज्ञान जान लेता है ।
सम्यग्दर्शन एक निर्मल पर्याय है किंतु सम्यग्दर्शन स्वयं अपनेको यह नहीं जानता कि मैं एक निर्मल पर्याय हूँ । सम्यग्दर्शनका एक ही विपय अखण्ड द्रव्य है, पर्याय सम्यग्दर्शनका विषय नहीं है ।
}
प्रश्न- सम्यग्दर्शनका विपय अखण्ड है और वह पर्यायको स्वीकार - नहीं करता तब फिर सम्यग्दर्शन के समय पर्याय कहाँ चली गई ? सम्यदर्शन स्वय पर्याय है, क्या पर्याय द्रव्यसे भिन्न हो गई ?
उत्तर—सम्यग्दर्शनका विषय तो अखण्ड द्रव्य ही है । सम्यग्दर्शन के विषयमें द्रव्य गुण पर्यायका भेद नहीं है । द्रव्य गुण पर्यायसे अभिन्न वस्तु ही सम्यग्दर्शनको मान्य है ( अभेद वस्तुका लक्ष्य करने पर जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है वह सामान्य वस्तुके साथ अभेद हो जाती है ) सम्यग्दर्शनरूप जो पर्याय है उसे भी सम्यग्दर्शन स्वीकार नहीं करता एक समय में भेद परिपूर्ण द्रव्य ही सम्यग्दर्शनको मान्य है, मात्र आत्मा तो सम्यग्दर्शनको प्रतीतिमें लेता है किन्तु सम्यग्दर्शनके साथ प्रगट होनेवाला सम्यज्ञान सामान्य विशेष सबको जानता है । सम्यग्ज्ञान पर्यायको और निमित्त को भी जानता है, सम्यग्दर्शनको भी जाननेवाला सम्यग्ज्ञान ही है । श्रद्धा और ज्ञान कब सम्यक् हुये ?
उदय, उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षायिक भाव इत्यादि कोई भी सम्यग्दर्शनका विषय नहीं है क्योंकि वे सब पर्यायें हैं । सम्यग्दर्शनका विषय परिपूर्ण द्रव्य है । पर्यायको सम्यग्दर्शन स्वीकार नहीं करता, मात्र वस्तुका जब लक्ष्य किया तब श्रद्धा सम्यक् हुई परन्तु ज्ञान सम्यक् कब हुआ ? ज्ञानका स्वभाव सामान्य - विशेष सबको जानना है जब ज्ञानने सारे द्रव्यको, प्रगट पर्यायको और विकारको तदवस्थ जानकर इस प्रकारका विवेक किया कि 'जो परिपूर्ण स्वभाव है सो मैं हूँ और जो विकार