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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१३७ उत्तर-जैनका नामधारी त्यागी साधु अनन्तबार हुआ यह बात ठीक है, किन्तु अन्तरंगमें मिथ्यात्वरूप महा पापका त्याग एकबार भी नहीं किया इसलिये उसका संसार बना हुआ है, क्योंकि संसारका कारण मिथ्यात्व ही है।
प्रश्न-तो फिर त्यागी साधु हुआ उसका फल क्या ?
उत्तर-बाह्यमें जो पर द्रव्यका त्याग हुआ उसका फल आत्माको नहीं होता परन्तु "मैं इस परद्रव्यको छोडू" यह माने तो ऐसी परद्रव्यकी कर्तृत्व बुद्धिका महा पाप आत्माको होता है और उसका फल संसार ही है। यदि कदाचित् कोई जीव बाहरसे त्यागी न दिखाई दे परन्तु यदि उसने सच्ची समझके द्वारा अन्तरंगों पर द्रव्यकी कर्तृत्व बुद्धिका अनन्त पाप त्याग दिया हो तो वह धर्मी है और उसके उस त्यागका फल मोक्ष है। पहलेके नामधारी साधुकी अपेक्षा दूसरा मिथ्यात्वका त्यागी अनन्त गुना उत्तम है। पहलेको मिथ्यात्वका अत्याग होनेसे वह संसारमें परिभ्रमण करेगा और दूसरेको मिथ्यात्वका त्याग होनेसे वह अल्पकालमें अवश्य मोक्ष जायेगा।
प्रश्न-तब क्या हमें त्याग नहीं करना चाहिये ?
उत्तर-इस प्रश्नका उत्तर उपरोक्त कथनमें आगया है। 'त्याग नहीं करना चाहिये यह बात उपरोक्त कथनमें कहीं भीनहीं है प्रत्युत इस कथनमें यह बताया है कि त्यागका फल मोक्ष और अत्यागका फल संसार किन्तु त्याग किसका ? मिथ्यात्वका या पर वस्तुका ? मिथ्यात्वके ही त्यागका फल मोक्ष है' परवस्तुका ग्रहण अथवा त्याग कोई कर ही नहीं सकता तब फिर परवस्तुके त्यागका प्रश्न कहाँसे उठ सकता है । बाह्यमें जो पर द्रव्यका त्याग हुआ उसका फल आत्माको नहीं है। पहले यथार्थ ज्ञानके द्वारा पर द्रव्यमें कर्तृत्वकी बुद्धिको छोड़ कर उस समझमें ही अनंत पर द्रव्यके स्वामित्वका त्याग होता है। परमें कर्तृत्वकी मान्यताका त्याग करनेके वाद जिस जिस प्रकारके राग भावका त्याग करता है उस उस
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