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________________ हर -* सम्यग्दर्शन यहाँ चिन्मात्र भावको निष्क्रिय कहनेका कारण क्या है ? जो कि वहाँ परिणति रूप क्रिया तो है परन्तु खण्डरूप-रागरूप क्रियाका अनुभव नहीं है । कर्ता-कर्म और क्रियाका भेद नहीं है तथा कर्ता-कर्मक्रिया सम्बन्धी विकल्प नहीं है इस अपेक्षासे निष्क्रिय' कहा गया है परन्तु अनुभवके समय अभेदरूपसे परिणति तो होती रहती है। पहिले जब पर लक्षसे द्रव्य पर्यायके वीच भेद होते थे तब विकल्परूप क्रिया थी किन्तु निज द्रव्यके लक्षसे एकाग्रता करने पर द्रव्य पर्यायके बीचका भेद टूटकर दोनों अभेद होगए, इस अपेक्षासे चैतन्य भावको निष्क्रिय कहा है। जाननेके अतिरिक्त जिसकी अन्य कोई क्रिया नहीं है ऐसे ज्ञानमात्र निष्क्रिय भावको इस गाथामें कथित उपायके द्वारा ही जीव प्राप्त कर सकता है। "मोहान्धकार अवश्य नष्ट होता है। अभेद अनुभवके द्वारा 'चिन्मात्र भावको प्राप्त करता है' यह बात अस्तिकी अपेक्षासे कही है अब चिन्मात्र भावको प्राप्त करने पर मोह नाशको प्राप्त होता है। इस प्रकार नास्तिकी अपेक्षासे यात करते है। चिन्मात्रभावकी प्राप्ति और मोहका क्षय यह दोनों एक ही समयमें होते हैं। "इस प्रकार जिसका निर्मल प्रकाश मणि (रत्न) के ममान अकम्प रूपसे प्रवर्तमान है ऐसे उस चिन्मान भावको प्राप्त जीयका मोहान्धकार निराश्रयताके कारण अवश्य ही नष्ट होजाता है।" [गाया ८० की टीका यहाँ शुद्ध सम्यक्त्वकी बात है इसलिये मणिका दृष्टांत दिया है। दीपका प्रकाश तो प्रकम्पित होता रहता है, वह एक समान नहीं रहता, किन्तु मणिका प्रकाश अकम्परूपसे सतत प्रवर्तमान रहना है, 'उगमा प्रकाश कभी वुम नहीं जाता। इसी प्रकार अभेद पैनन्यस्यमाया भगवान आत्मामें लक्ष करके वहीं एकाकार रूपमे प्रवर्नमान जीयर अकम्प प्रकाश प्रगट होनेपर मोहान्धकारको गहनेका कोई स्थान नहीं रहता इसलिये वह मोहान्धकार निराश्रय होकर पवश्यमेन सरको मान
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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