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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
"हारको खरीदने वाला आदमी खरीदते समय हार तथा उसकी सफेदी और उसके मोती इत्यादि सबकी परीक्षा करता है परन्तु , बादमें सफेदी और मोतियोंको हारमें समाविष्ट करके उनके ऊपरका लक्ष छोड़कर केवल हारको ही जानता है । यदि ऐसा न करे तो हारको पहिरनेकी स्थिति में भी सफेदी इत्यादिके विकल्प रहनेसे वह हारको पहिरनेके सुखका सवेदन नहीं कर सकेगा।" [गुजराती-प्रवचनसार, पा ११६ फुटनोट ] इसीप्रकार आत्म स्वरूपको समझने वाला समझते समय तो द्रव्य, गुण, पर्याय-इन तीनोंके स्वरूपका विचार करता है परन्तु बादमें गुण और पर्यायको द्रव्यमें ही समाविष्ट करके-उनके ऊपरका लक्ष छोड़कर मात्र आत्मा को ही जानता है । यदि ऐसा न करे तो द्रव्यका स्वरूप ख्यालमें आने पर भी गुण पर्याय सम्बन्धी विकल्प रहनेसे द्रव्यका अनुभव नही कर सकेगा।
हार आत्मा है, सफेदी ज्ञान गुण है और मोती पर्याय हैं। इसप्रकार दृष्टांत और सिद्धांतका सम्बन्ध समझना चाहिये। द्रव्य, गुण, पर्यायके स्वरूपको जाननेके बाद मात्र अभेद स्वरूप आत्माका अनुभव करना ही धर्मकी प्रथम क्रिया है । इसी क्रियासे अनन्त अरिहन्त तीर्थकर क्षायक सम्यग्दर्शन प्राप्त करके केवलज्ञान और मोक्ष दशाको प्राप्त हुए है। वर्तमान में भी मुमुक्षुओंके लिये यही उपाय है और भविष्यमें जो अनन्त तीर्थकर होंगे वे सब इसी उपायसे होंगे।
सर्व जीवोंको सुखी होना है, सुखी होनेके लिये स्वाधीनता चाहिये, स्वाधीनता प्राप्त करनेके लिये सम्पूर्ण स्वाधीनताका स्वरूप जानना चाहिये। सम्पूर्ण स्वाधीन अरिहन्त भगवान हैं, इसलिये अरिहन्तका ज्ञान करना चाहिये। जैसे अरिहन्तके द्रव्य, गुण, पर्याय हैं वैसे ही अपने हैं। अरिहन्तके रागद्वेष नहीं है, वे म तो अपने शरीरका कुछ करते हैं और न परका ही कुछ करते है। उनके दया अथवा हिसाके विकारी भाव नहीं होते, वे मात्र ज्ञान ही करते है, इसीप्रकार मै भी ज्ञान करने वाला ही हूँ, अन्य कुछ मेरा स्वरूप नहीं है। वर्तमानमें मेरे ज्ञानमें कचाई है वह मेरी