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________________ १०३ अत्युक्ति। यही देखते हैं कि कुली लोग बाहर बैठकर त्रस्त चित्तसे पंखेकी रस्सी खींच रहे हैं, साईस घोड़ेकी लगाम पकड़कर चँवरसे मक्खियाँ और मच्छड़ उड़ा रहे हैं और दग्ध भारतवर्षके तप्त सम्बन्धसे दूर होनेके लिये शासक लोग शिमलेके पहाड़की तरफ भाग रहे हैं। भारतवर्षमें अँगरेजी राज्यका विशाल शासन-कार्य बिलकुल ही आनन्दहीन और सौन्दर्यहीन है । उसका सारा मार्ग केवल दफतरों और अदालतोंकी ही ओर है, जनसमाजके हृदयकी ओर बिलकुल नहीं है। तो फिर अचानक इसके बीचमें यह बिलकुल बजोड़ दिखनेवाला दरबार क्यों किया जाता है ? सारी शासन-प्रणालीके साथ उसका किस जगहसे सम्बन्ध है ? पेड़ों और लताओंमें फूल होता है, आफिसोंकी कड़ियों और धरनों में माधवी मंजरी नहीं लगती ! यह तो मानों मरुभूमिमें मरीचिकाके समान है । यह छाया तापके निवारणके लिये नहीं है, इस जलसे प्यास नहीं बुझगी। प्राचीन कालके दरबारोंमें सम्राट् लोग केवल अपना प्रताप ही नहीं प्रकट किया करते थे। वे सब दरबार किसीके सामने ऊँचे स्वरसे कोई बात प्रमाणित करनेके लिये नहीं किए जाते थे, वे स्वाभाविक होते थे। वे सब उत्सव बादशाहों और नवाबोंकी उदारताके उद्वेलित प्रवाह-स्वरूप हुआ करते थे। उस प्रवाहमें दानशीलता होती थी। उससे प्रार्थियोंकी प्रार्थनाएं पूरी होती थीं, उससे दीनोंका अभाव दूर होता था, उससे आशा और आनन्दका दूर दूर तक प्रसार होता था। अब जो दरवार होनेवाला है उसके कारण बतलाओ किस पीड़ितको आश्वासन मिला है, कौन दरिद्र सुखस्वप्न देख रहा है ? यदि उस दिन कोई दुराशाग्रस्त अभागा अपने हाथमें कोई प्रार्थनापत्र लेकर सम्राटके प्रतिनिधिके पास जाना चाहे तो क्या उसे पुलिसके हाथकी मार खाकर रोते हुए न लौटना पड़ेगा ?
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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