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( १८८ ) मंदिर मकान घर द्वारादि अनित्य जान । खानपान वसनजो भुषण में नित हे ॥ कहे हीरालाल याही भावना भरत भाइ । महिलो में केवल पाइ गया ऊंची गत है ॥ २ ॥ असरणको सरनो जिनंद मारग तणो । और नहीं कोई तणो आगम आधार है || मात पिता मिल्या भाई विवध प्रकार आई । आयुष्य के अंत नाही राखे तिण वार है || श्वांसखां कुष्ट आदि देहीमें अनेक केई । सोलस प्रकार, राज रोग अधिकार है ॥ संकट हरण भव दुखको मेटण जण | हीरालाल इम चींत्यो अनाथि अणगार हे || ३ || जोरे जीव ज्ञान नेन विवध विचार वेण । संसार समुद्रफेन भान केसों भलको ॥ लखचोरासि माहीं फंस्यो हे अनंत जाहीं ।
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