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________________ जन प्र पाठ संप्रद पव जग के ऊपर हा जाता भवरे-सा काला धकार, सूरज की एक किरस उसको पस में कर देती हार-धार, वैसे ही भव भव के पातक जो भी समय हो जाते हैं. तेरी स्तुति के द्वारा ही सब बरा में क्षय हो जाते है ।। ज्यों कमत पत्र के ऊपर पड़ जल की वर्दै मन हरतीह मोती समान लामा पाकर जो जगमग-जगमग करती हैं, बस उसी तरह यह स्तुति मी तेरे घरखो का दल पाकर, विद्वानों का मन हर सेगी मुझ अल्प युद्धि द्वारा गाकर 151 है बिनकर तेरो कथा हो पर हर ध्यथा दूर कर देती है. फिर स्तुति का कहना ही क्या जो कोटि पाप हर लेती है, से सूरज को उपयाती मग का हर काम चलाती है, पर उससे पहिसे को हासी कमतो के अण्ड खिलाती है। है भुवनरत । है त्रिभुवनपति को तेरी स्तुति गाते हैं, नाश्वर्य नही इसमें कुछ मी वो तुम से बन जाते हैं, पैसे उदार स्वामी पाकर सेवक धनवाते बन जाते. है जन्म व्यर्थ पग में उनका मो पर के काम नही माते ॥१० पो चन्द्र किरण सम उज्ज्वत पत मोठा क्षीरोदधि पान करे, वह नवखोदधि का सारा जस पीने का कभी न ध्यान करे, वैसे ही तेरी वीतराग मुद्रा को नेत्र देख लेते, तो उन्हें सरागी देव कमी अन्तर में शान्ति नही देते । १५. जितने परमाणु शुद्ध जग में उनसे निर्मित तेरी काया, इसलिये जाप सा सुन्दर दूजा न कोई नजर आया देवा की गति सन्दर कान्ति जो नेत्रो में गड़ जाती है पर वही कान्ति तेरै सन्मुस जातै फोकी पड़ जाती है । १२६ है नाय जाप का मुख मण्डस सुर नर के नेत्र हरण करता, दुनिया को सुन्दर उपमायें कर सकें नही जिसको समता, कान्तिहीन चन्दा दिन में बस टाक पत्र-सा सगता है. वह भी जिन के सन्दर मुख फी उपमा कसे पा सकता है। १३ ॥
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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