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जन पूजा पाठ सग्रह
एक दिवस गुणधर सुकुमार, घास लेन आयो गृह द्वार । क्षुधावन्त भावज प गयो, दन्त बिना नहिं भोजन दयो ॥१३॥ बहुरि गयो जहाँ भूल्यो दन्त, देख्यो तासों अहि लिएटन्त । फणिपति की तहं विनती करी, पद्मावति प्रगटी तिहि घरी ॥१४॥ सुन्दर मणिमय पारसनाथ, प्रतिमा एक दई तिहिं हाथ ।। देकर कयो कुवर कर भोग, करो क्षणक पूला सपोल ॥१॥ आनर्विव निज घर मे धरयो, तिहंकर तिनको दारिद्र हत्यो । सुख विलास सेवे सब नन्द, नित प्रति पूजे पार जिनन्द ॥१६॥ साकेता नगरी अभिराम, सुन्दर बनवायो जिन-धाम | करी प्रतिष्ठा पुण्य संयोग, आये भविनन सग सु लोग ॥१७॥ सङ्घ चतुर्विधि का सनमान, कियो दियो मनवाछित दान । देख सेठ तिनकी सम्पदा, जाय कही भूपतितों तदा ॥१८॥ भूपति तन पूछ्यो विरतन्त, सत्य कह्यो गणधर गुणवन्त । देख सुलक्षण ताको रूप, अति आनन्द भयो सो भूप ॥१६॥ भूपति गृह तनुजा सुन्दरी, गुणधर को दीनों गुण भरी। कर विवाह मङ्गल सानन्द, हय गज पुरजन परमानन्द ॥२०॥ मनवांछित पाये सुख भोग, विस्मित भये सकल पुर लोग । सुखसों रहत बहुत दिन भये, तव सव वधु बनारस गये ॥२१॥ मात-पिता के परसे पाय, अति आनन्द हिरदे न समाय । विघट्यो सवको विषय वियोग, भयो सकल पुरजन संयोग ॥२२॥ आठ सात नोलह के अङ्क, रवित्रत कथा रची अकलङ्क। थोड़ो अर्थ ग्रन्थ विस्तार, कहै कवीश्वर ओ गुणसार ॥२३॥ यह व्रत जो नर-नारी करें, कबहूँ दुर्गति में नहिं परें। भाव सहित ते शिवसुख लहै, भानु कीर्ति मुनिवर इमि कहैं ॥२४॥