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________________ १७० जैन पूजा पाठ सग्रह पनवीस जु मेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ।। निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई। फिर जागि विषय-वन घायो. नानाविध विष-फल खायो।। कियेऽहार निहार विहारा, इनमें नहिं जतन विचारा । विन देखी धरी उठाई, विन शोधी वस्तु जु खाई॥ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो। कछु सुधि बुषि नाहिं रही है, मिथ्या पति छाय गयी है।। मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहमें दोष जु कीनी। मिन भिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविष सब पहये ।। हा हा ! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी। थावरकी जतन न कीनी, उरमें करना नहिं लीनी ।। पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई। पुनि विन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन विलोल्यो । हा हा । मैं अदयाचारी. बहु हरितकाय जु विदारी । तामधि जीवनके खंदा, हम खाये धरि आनंदा । हा हा! परमाद वसाई, विन देखे अगनि जलाई। तामन्य जीव जे आये. ते ह परलोक सिधाये ।। वीध्यो अन रात पिसायो, ईधन बिन सोध जलायो। झाह ले जागां पहारी, चिंउटी आदिक जीव विदारी ।। जल छानि जिवानी कीनी, सोह पुनि डारि जु दीनी । नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई ॥ जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि-शुल बहु घात करायो। नदियन बिच चीर धुवाये, कोसनके जीव मराये ॥ अमादिक शोध कराई, तामैं जु जीव निसराई ।
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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