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भक्तामरस्तोत्र [ भाषा ] [ हेमराज ]
जन पूजा पाठ सप्रह
आदिपुरुष आढीश जिन, आदि मुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमो आदि अवतार || सुर-नत-मुकुट रतन- छवि करें, अंतर पाप - तिमिर सब हरेँ । जिनपढ चंदों मन वच काय, भव-जल- पतित उधरन-सहाय ॥
श्रुत- पारग इंद्रादिक देव, जाकी श्रुति कीनी कर सेव । शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभुकी वरनों गुन- माल ॥ विबुध- वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज धुति- मनसा कीन । जल-प्रतिबिंब बुद्ध को है, शशि-मंडल बालक ही चहै ॥ गुन- समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावैं पार | प्रलय-पवन-उद्धृत जल-जंतु, जलधि तिरै को भुज बलवंतु ॥ सो मैं शक्तिहीन धुति करूं, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूं । ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ॥ मैं शठ सुघी हॅसनको घाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम । ज्यो पिक अंब-कली-परभाव, मधुऋतु मधुर करै आराव || तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम जनमके पाप नशाहिं । ज्यों रपि उगै फटै ततकाल, अलिवत नील निशा -तम-जाल ॥ तव प्रभावतै कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफलको दुति विस्तरै ॥ तुम गुन- महिमा हत - दुख-दीप, सो तो दूर रहो सुख-पोष । पाप - विनाशक है तुम नाम, कमल - विकाशी ज्यों रवि-धाम ॥